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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 380 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवाभिओगेण निओइएणं दिन्ना मु रन्ना मनसा न ज्झाया ।
नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं जेणम्हि वंता इसिणा स एसो ॥ Translated Sutra: भद्रा – देवता की बलवती प्रेरणा से राजा ने मुझे इस मुनि को दिया था, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा। मेरा परित्याग करने वाले यह ऋषि नरेन्द्रों और देवेन्द्रों से भी पूजित हैं। ये वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने स्वयं मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा मुझे दिये जाने | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 392 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा तुब्भे न वि कुप्पह भूइपण्णा ।
तुब्भं तु पाए सरणं उवेमो समागया सव्वजनेन अम्हे ॥ Translated Sutra: रुद्रदेव – धर्म और अर्थ को यथार्थ रूप से जाननेवाले भूतिप्रज्ञ आप क्रोध न करे। हम सब मिलकर आपके चरणों में आए हैं, शरण ले रहे हैं। महाभाग ! हम आपकी अर्चना करते हैं। अब आप दधि आदि नाना व्यंजनों से मिश्रित शालिचावलों से निष्पन्न भोजन खाइए।यह हमारा प्रचुर अन्न है। हमारे अनुग्रहार्थ इसे स्वीकार करें। पुरोहित के | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१२ हरिकेशीय |
Hindi | 395 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहियं गंधोदयपुप्फवासं दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा ।
पहयाओ दुंदुहीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणं च घुट्ठं ॥ Translated Sutra: देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य धन की वर्षा को और दुन्दुभियाँ बजाईं, आकाश में ‘अहो दानम्’ का घोष किया। प्रत्यक्ष में तप की ही विशेषता – महिमा देखी जा रही है, जाति की नहीं। जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी ऋद्धि है, वह हरिकेश मुनि – चाण्डाल पुत्र है। सूत्र – ३९५, ३९६ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 407 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जाईपराजिओ खलु कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि ।
चुलणीए बंभदत्तो उववन्नो पउमगुम्माओ ॥ Translated Sutra: जाति से पराजित संभूत मुनि ने हस्तिनापुर में चक्रवर्ती होने का निदान किया था। वहाँ से मरकर वह पद्मगुल्म विमान में देव बना। फिर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में चुलनी की कुक्षि से जन्म लिया। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 411 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आसिमो भायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा ।
अन्नमन्नमनुरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो ॥ Translated Sutra: ‘‘इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, अनुरक्त और हितैषी भाई – भाई थे। – ‘‘हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत – गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चाण्डाल थे। देवलोक में महान् ऋद्धि से सम्पन्न देव थे। यह हमारा छठवां भव है, जिसमें हम एक – दूसरे को छोड़कर पृथक् – पृथक् पैदा हुए हैं।’’ सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१३ चित्र संभूतीय |
Hindi | 413 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवा य देवलोगम्मि आसि अम्हे महिड्ढिया ।
इमा नो छट्ठिया जाई अन्नमन्नेण जा विना ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४११ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 442 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवा भवित्ताण पुरे भवम्मी केई चुया एगविमानवासी ।
पुरे पुराणे उसुयारनामे खाए समिद्धे सुरलोगरम्मे ॥ Translated Sutra: देवलोक के समान सुरम्य, प्राचीन, प्रसिद्ध और समृद्धिशाली इषुकार नगर था। उसमें पूर्वजन्म में एक ही विमान के वासी कुछ जीव देवताका आयुष्य पूर्ण कर अवतरित हुए। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 444 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुमत्तमागम्म कुमार दो वी पुरोहिओ तस्स जसा य पत्ती ।
विसालकित्ती य तहोसुयारो रायत्थ देवी कमलावई य ॥ Translated Sutra: पुरुषत्व को प्राप्त दोनों पुरोहितकुमार, पुरोहित, उसकी पत्नी यशा, विशालकीर्ति वाला इषुकार राजा और उसकी रानी कमलावती – ये छह व्यक्ति थे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 478 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरोहियं तं ससुयं सदारं सीच्चाभिनिक्खम्म पहाय भोए ।
कुडुंबसारं विउलुत्तमं तं रायं अभिक्खं समुवाय देवी ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 481 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मरिहिसि रायं! जया तया वा मनोरमे कामगुणे पहाय ।
एक्को हु धम्मो नरदेव! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ॥ Translated Sutra: ‘‘राजन् ! एक दिन इन मनोज्ञ काम गुणों को छोड़कर जब मरोगे, तब एक धर्म ही संरक्षक होगा। यहाँ धर्म के अतिरिक्त और कोई रक्षा करने वाला नहीं है। पक्षिणी जैसे पिंजरे में सुख का अनुभव नहीं करती है, वैसे ही मुझे भी यहाँ आनन्द नहीं है। मैं स्नेह के बंधनो को तोड़कर अकिंचन, सरल, निरासक्त, परिग्रह और हिंसा से निवृत्त होकर मुनि | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१४ इषुकारीय |
Hindi | 494 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] राया सह देवीए माहणो य पुरोहिओ ।
माहणी दारगा चेव सव्वे ते परिनिव्वुड ॥ –त्ति बेमि ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ४९२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१५ सभिक्षुक |
Hindi | 508 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सद्दा विविहा भवंति लोए दिव्वा मानुस्सगा तहा तिरिच्छा ।
भीमा भयभेरवा उराला जो सोच्चा न वहिज्जई स भिक्खू ॥ Translated Sutra: संसार में देवता, मनुष्य और तिर्यंचों के जो अनेकविध रौद्र, अति भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो डरता नहीं है, वह भिक्षु है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१७ पापश्रमण |
Hindi | 556 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सयं गेहं परिचज्ज परगेहंसि वावडे ।
निमित्तेण य ववहरई पावसमणि त्ति वुच्चई ॥ Translated Sutra: जो अपने घर को छोड़कर परघर में व्यापृत होता है – शुभाशुभ बतलाकर द्रव्यादिक उपार्जन करता है, वह पापश्रमण है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 587 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहमासी महापाने जुइमं वरिससओवमे ।
जा सा पाली महापाली दिव्वा वरिससओवमा ॥ Translated Sutra: मैं पहले महाप्राण विमान में वर्ष शतोपम आयुवाला द्युतिमान् देव था। जैसे कि यहाँ सौ वर्ष की आयुपूर्ण मानी जाती है, वैसे ही वहाँ पल्योपम एवं सागरोपम की दिव्य आयु पूर्ण है। ब्रह्मलोक का आयुष्य पूर्ण करके मैं मनुष्य भव में आया हूँ। मैं जैसे अपनी आयु को जानता हूँ, वैसे ही दूसरों की आयु को भी जानता हूँ।’’ सूत्र – | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१८ संजयीय |
Hindi | 603 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दसण्णरज्जं मुइयं चइत्ताणं मुनी चरे ।
दसण्णभद्दो निक्खंतो सक्खं सक्केण चोइओ ॥ Translated Sutra: साक्षात् देवेन्द्र से प्रेरित होकर दशार्णभद्र राजा ने अपने सब प्रकार से प्रमुदित दशार्ण राज्य को छोड़कर प्रव्रज्या ली और मुनि – धर्म का आचरण किया। विदेह के राजा नमि श्रामण्य धर्म में भली – भाँति स्थिर हुए, अपने को अति विनम्र बनाया। सूत्र – ६०३, ६०४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 614 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सुग्गीवे नयरे रम्मे काननुज्जानसोहिए ।
राया बलभद्दो त्ति मिया तस्सग्गमाहिसी ॥ Translated Sutra: कानन और उद्यानों से सुशोभित ‘सुग्रीव’ नामक सुरम्य नगर में बलभद्र राजा था। मृगा पट्टरानी थी। ‘बलश्री’ नाम का पुत्र था, जो कि ‘मृगापुत्र’ नाम से प्रसिद्ध था। माता – पिता को प्रिय था। युवराज था और दमीश्वर था। प्रसन्न – चित्त से सदा नन्दन प्रासाद में – दोगुन्दग देवों की तरह स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता था। सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 616 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] नंदने सो उ पासाए कीलए सह इत्थिहिं ।
देवो दोगुंदगो चेव निच्चं मुइयमानसो ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६१४ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 617 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणट्ठिओ ।
आलोएइ नगरस्स चउक्कतियचच्चरे ॥ Translated Sutra: एक दिन मृगापुत्र मणि और रत्नों से जडित कुट्टिमतल वाले प्रासाद के गवाक्ष में खड़ा था। नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था। उसने वहाँ राजपथ पर जाते हुए तप, नियम एवं संयम के धारक, शील से समृद्ध तथा गुणों के आकार एक संयत श्रमण को देखा। वह उस को अनिमेष – दृष्टि से देखता है और सोचता है – ‘‘मैं मानता हूँ कि | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-१९ मृगापुत्रीय |
Hindi | 621 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवलोग चुओ संतो मानुसं भवमागओ ।
सण्णिनाणे समुप्पन्ने जाइं सरइ पुराणयं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ६१७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1115 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] निव्वेएणं भंते! जीवे किं जणयइ?
निव्वेएणं दिव्वमानुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ, सव्वविसएसु विरज्जइ। सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ। आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिंदइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! निर्वेद से जीव को क्या प्राप्त होता है ? निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यंच – सम्बन्धी काम – भोगों में शीघ्र निर्वेद को प्राप्त होता है। सभी विषयों में विरक्त होता है। आरम्भ का परित्याग करता है। आरम्भ का परित्याग कर संसार – मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि मार्ग को प्राप्त होता है। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1117 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं विनयपडिवत्तिं जणयइ। विनयपडिवन्ने य णं जीवे अनच्चा-सायणसीले नेरइयतिरिक्खजोणियमनुस्सदेवदोग्गईओ निरुंभइ, वण्णसंजलणभत्तिबहुमानयाए मनुस्सदेवसोग्गईओ निबंधइ, सिद्धिं सोग्गइं च विसोहेइ। पसत्थाइं च णं विनयमूलाइं सव्वकज्जाइं साहेइ। अन्ने य बहवे जीवे विणइत्ता भवइ। Translated Sutra: भन्ते ! गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? गुरु और साधर्मिक की शुश्रूषा से जीव विनय – प्रतिपत्ति को प्राप्त होता है। विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवादादिरूप आशातना नहीं करता। उससे वह नैरयिक, तिर्यग्, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। वर्ण, संज्वलन, भक्ति और बहुमान | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 777 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खेमेण आगए चंपं सावए वाणिए घरं ।
संवड्ढई घरे तस्स दारए से सुहोइए ॥ Translated Sutra: वह वणिक् श्रावक सकुशल चम्पा नगरी में अपने घर आया। वह सुकुमार बालक उसके घर में आनन्द के साथ बढ़ने लगा। उसने बहत्तर कलाऍं सीखीं, वह नीति – निपुण हो गया। वह युवावस्था से सम्पन्न हुआ तो सभी को सुन्दर और प्रिय लगने लगा। पिता ने उसके लिए ‘रूपिणी’ नाम की सुन्दर भार्या ला दी। वह अपनी पत्नी के साथ दोगुन्दक देव की भाँति | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 779 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्स रूववइं भज्जं पिया आनेइ रूविणिं ।
पासाए कीलए रम्मे देवो दोगुंदओ जहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७७७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२१ समुद्रपालीय |
Hindi | 788 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अनेगछंदा इह मानवेहिं जे भावओ संपगरेइ भिक्खू ।
भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा दिव्वा मनुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥ Translated Sutra: यहाँ संसार में मनुष्यों के अनेक प्रकार के अभिप्राय होते हैं। भिक्षु उन्हें अपने में भी भाव से जानता है। अतः वह देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यंचकृत भयोत्पादक भीषण उपसर्गों को सहन करे। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 797 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोरियपुरंमि नयरे आसि राया महिड्ढिए ।
वसुदेवे त्ति नामेणं रायलक्खणसंजुए ॥ Translated Sutra: सोरियपुर नगर में राज – लक्षणों से युक्त, महान् ऋद्धि से संपन्न ‘वसुदेव’ राजा था। उसकी रोहिणी और देवकी दो पत्नियाँ थीं। उन दोनों के राम (बलदेव) और केशव (कृष्ण) – दो प्रिय पुत्र थे। सूत्र – ७९७, ७९८ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 798 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तस्स भज्जा दुवे आसी रोहिणी देवई तहा ।
तासिं दोण्हं पि दो पुत्ता इट्ठा रामकेसवा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ७९७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 801 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सोरिट्ठनेमिनामो उ लक्खणस्सरसंजुओ ।
अट्ठसहस्सलक्खणधरो गोयमो कालगच्छवी ॥ Translated Sutra: वह अरिष्टनेमि सुस्वरत्व एवं लक्षणों से युक्त था। १००८ शुभ लक्षणों का धारक भी था। उसका गोत्र गौतम था और वह वर्ण से श्याम था। वह वज्रऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थानवाला था। उसका उदर मछली के उदर जैसा कोमल था। राजमती कन्या उसकी भार्या बने, यह याचना केशव ने की। यह महान राजा की कन्या सुशील, सुन्दर, सर्वलक्षण | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 804 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अहाह जणओ तीसे वासुदेवं महिड्ढियं ।
इहागच्छऊ कुमारो जा से कन्नं दलाम हं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८०१ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 805 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सव्वोसहीहि ण्हविओ कयकोउयमंगलो ।
दिव्वजुयलपरिहिओ आभरणेहिं विभूसिओ ॥ Translated Sutra: अरिष्टनेमि को सर्व औषधियों के जल से स्नान कराया गया। यथाविधि कौतुक एवं मंगल किए गए। दिव्य वस्त्र – युगल पहनाया गया और उसे आभरणों से विभूषित किया गया। वासुदेव के सबसे बड़े मत्त गन्धहस्ती पर अरिष्टनेमि आरूढ हुए तो सिर पर चूडामणि की भाँति बहुत अधिक सुशोभित हुए। अरिष्टनेमि ऊंचे छत्र से तथा चामरों से सुशोभित | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 806 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मत्तं च गंधहत्थिं वासुदेवस्स जेट्ठगं ।
आरूढो सोहए अहियं सिरे चूडामणी जहा ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८०५ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 817 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] मनपरिणामे य कए देवा य जहोइयं समोइण्णा ।
सव्वड्ढीए सपरिसा निक्खमणं तस्स काउं जे ॥ Translated Sutra: मन में ये परिणाम होते ही उनके यथोचित अभिनिष्क्रमण के लिए देवता अपनी ऋद्धि और परिषद् के साथ आए। देव और मनुष्यों से परिवृत्त भगवान् अरिष्टनेमि शिबिकारत्न में आरूढ़ हुए। द्वारका से चलकर रैवतक पर्वत पर स्थित हुए। उद्यान में पहुँचकर, उत्तम शिबिका से उतरकर, एक हजार व्यक्तियों के साथ, भगवान ने चित्रा नक्षत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 818 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] देवमनुस्सपरिवुडो सीयारयणं तओ समारूढो ।
निक्खमिय बारगाओ रेवययंमि ट्ठिओ भगवं ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ८१७ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 821 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइंदियं ।
इच्छियमनोरहे तुरियं पावेसू तं दमीसरा! ॥ Translated Sutra: वासुदेव कृष्ण ने लुप्तकेश एवं जितेन्द्रिय भगवान् को कहा – हे दमीश्वर ! आप अपने अभीष्ट मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो। आप ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति और मुक्ति के द्वारा आगे बढ़ो।इस प्रकार बलराम, केशव, दशार्ह यादव और अन्य बहुत से लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी को लौट आए। सूत्र – ८२१–८२३ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 827 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वासुदेवो य णं भणइ लुत्तकेसं जिइंदियं ।
संसारसागरं घोरं तर कन्ने! लहुं लहुं ॥ Translated Sutra: वासुदेव ने लुप्त – केशा एवं जितेन्द्रिय राजीमती को कहा – कन्ये ! तू इस घोर संसार – सागर को अति शीघ्र पार कर। | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२२ रथनेमीय |
Hindi | 840 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ ।
वायाविद्धो व्व हढो अट्ठिअप्पा भविस्ससि ॥ Translated Sutra: यदि तू जिस किसी स्त्री को देखकर ऐसे ही राग – भाव करेगा, तो वायु से कम्पित हड की तरह तू अस्थितात्मा होगा। जैसे गोपाल और भाण्डपाल उस द्रव्य के स्वामी नहीं होते हैं, उसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। तू क्रोध, मान, माया और लोभ को पूर्णतया निग्रह करके, इन्द्रियों को वश में करके अपने – आप को उपसंहार कर – सूत्र | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२४ प्रवचनमाता |
Hindi | 939 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आलंबनेन कालेन मग्गेण जयणाइ य ।
चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए ॥ Translated Sutra: संयती साधक आलम्बन, काल, मार्ग और यतना – इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या समिति से विचरण करे ईर्या समिति का आलम्बन – ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। काल दिवस है। और मार्ग उत्पथ का वर्जन है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से यतना चार प्रकार की है। उसको मैं कहता हूँ। सुनो – द्रव्य से – आँखों से देखे। क्षेत्र से | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 978 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अग्गिहोत्तमुहा वेया जण्णट्ठी वेयसा मुहं ।
नक्खत्ताण मुहं चंदो धम्माणं कासवो मुहं ॥ Translated Sutra: जयघोष मुनि – वेदों का मुख अग्नि – होत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र है और धर्मों का मुख काश्यप (ऋषभदेव) है।जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चन्द्र की वन्दना तथा नमस्कार करते हुए स्थित है, वैसे ही भगवान् ऋषभदेव हैं। सूत्र – ९७८, ९७९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२५ यज्ञीय |
Hindi | 988 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिव्वमानुसतेरिच्छं जो न सेवइ मेहुणं ।
मनसा कायवक्केणं तं वयं बूम माहणं ॥ Translated Sutra: जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च – सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र – ९८८, ९८९ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1092 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो ॥ Translated Sutra: परोपदेश के बिना स्वयं के ही यथार्थ बोध से अवगत जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव और संवर आदि तत्त्वों की जो रुचि है, वह ‘निसर्ग रुचि’ है। जिन दृष्ट भावों में, तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में – ‘यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है’ – ऐसी जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है, वह ‘निसर्गरुचि’ है। सूत्र – १०९२, | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1471 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्माधम्मे य दोवेए लोगमित्ता वियाहिया ।
लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए ॥ Translated Sutra: धर्म और अधर्म लोक – प्रमाण हैं। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल केवल समय – क्षेत्र में नहीं है। धर्म, अधर्म, आकाश – ये तीनों द्रव्य अनादि, अपर्यवसित और सर्वकाल हैं। सूत्र – १४७१, १४७२ | |||||||||
Uttaradhyayan | उत्तराध्ययन सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-३६ जीवाजीव विभक्ति |
Hindi | 1474 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] खंधा य खंधदेसा य तप्पएसा तहेव य ।
परमाणुणो य बोद्धव्वा रूविणो य चउव्विहा ॥ Translated Sutra: रूपी द्रव्य के चार भेद हैं – स्कन्ध, स्कन्ध – देश, स्कन्ध – प्रदेश और परमाणु। परमाणुओं के एकत्व होने से स्कन्ध होते हैं। स्कन्ध के पृथक् होने से परमाणु होते हैं। यह द्रव्य की अपेक्षा से है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे स्कन्ध आदि लोक के एक देश से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में भाज्य हैं – यहाँ से आगे स्कन्ध और परमाणु के | |||||||||
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अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1079 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभिनिबोहियं ।
ओहीनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ॥ Translated Sutra: उन में ज्ञान पाँच प्रकार का है – श्रुत ज्ञान, आभिनिबोधिक ज्ञान, अवधि ज्ञान, मनो ज्ञान और केवल ज्ञान। यह पाँच प्रकार का ज्ञान सब द्रव्य, गुण और पर्यायों का ज्ञान है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। सूत्र – १०७९, १०८० | |||||||||
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अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1081 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] गुणाणमासओ दव्वं एगदव्वस्सिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ॥ Translated Sutra: द्रव्य गुणों का आश्रय है, जो प्रत्येक द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं। पर्यायों का लक्षण द्रव्य और गुणों के आश्रित रहना है। | |||||||||
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अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1082 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो ।
एस लोगो त्ति पन्नत्तो जिनेहिं वरदंसिहिं ॥ Translated Sutra: वरदर्शी जिनवरों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव – यह छह द्रव्यात्मक लोक कहा है। | |||||||||
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अध्ययन-२८ मोक्षमार्गगति |
Hindi | 1083 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] धम्मो अहम्मो आगासं दव्वं इक्किक्कमाहियं ।
अनंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गलजंतवो ॥ Translated Sutra: धर्म, अधर्म और आकाश – ये तीनों द्रव्य संख्या में एक – एक हैं। काल, पुद्गल और जीव – ये तीनों द्रव्य अनन्त – अनन्त हैं। | |||||||||
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अध्ययन-२९ सम्यकत्व पराक्रम |
Hindi | 1127 | Sutra | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] थवथुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणयइ?
थवथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ। नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ। Translated Sutra: भन्ते ! स्तवस्तुतिमंगल से जीव को क्या प्राप्त होता है ? स्तव – स्तुति मंगल से जीव को ज्ञान – दर्शन – चारित्र स्वरूप बोधि का लाभ होता है। ज्ञान – दर्शन – चारित्र स्वरूप बोधि से संपन्न जीव अन्तक्रिया के योग्य अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1202 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ओमोयरियं पंचहा समासेण वियाहियं ।
दव्वओ खेत्तकालेणं भावेणं पज्जवेहि य ॥ Translated Sutra: संक्षेप में अवमौदर्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की अपेक्षा से पाँच प्रकार का हैं। | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1203 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे ।
जहन्नेणेगसित्थाई एवं दव्वेण ऊ भवे ॥ Translated Sutra: जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम – से – कम एक सिक्थ तथा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना, द्रव्य से ‘ऊणोदरी’ तप है। | |||||||||
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अध्ययन-३० तपोमार्गगति |
Hindi | 1212 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य आहिया उ जे भावा ।
एएहिं ओमचरओ पज्जवचरओ भवे भिक्खू ॥ Translated Sutra: द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो – जो पर्याय कथन किये हैं, उन सबसे ऊणोदरी तप करने वाला ‘पर्यवचरक’ होता है। | |||||||||
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अध्ययन-३१ चरणविधि |
Hindi | 1230 | Gatha | Mool-04 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमानुसे ।
जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मंडले ॥ Translated Sutra: देव, तिर्यंच और मनुष्य – सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा सहन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। |