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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 224 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायचउत्थेहिं, तस्स णं नो एवं भवति–चउत्थं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जाइं वत्थाइं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं धारेज्जा।
नो धोएज्जा, नो रएज्जा, नो धोय-रत्ताइं वत्थाइं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं। Translated Sutra: जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि ‘मैं चौथे वस्त्र की याचना करूँगा। वह यथा – एषणीय वस्त्रों की याचना करे और यथापरिगृहीत वस्त्रों को धारण करे। वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए – रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे। दूसरे ग्रामों में जाते | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 225 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेत्ता–
अदुवा संतरुत्तरे।
अदुवा एगसाडे।
अदुवा अचेले। Translated Sutra: जब भिक्षु यह जान ले कि ‘हेमन्त ऋतु’ बीत गई है, ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह जिन – जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे। उन यथापरिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर (ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक वाला होकर रहे। अथवा वह अचेलक हो जाए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 226 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवति। Translated Sutra: (इस प्रकार) लाघवता को लाता या उसका चिन्तन करता हुआ वह उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में ही) तप सध जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 227 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जमेयं भगवया पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: भगवान ने जिस प्रकार से इस (उपधि – विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई – पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-४ वेहासनादि मरण | Hindi | 228 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–पुट्ठो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सीय-फासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आउट्टे।
तवस्सिनो हु तं सेयं, जमेगे विहमाइए।
तत्थावि तस्स कालपरियाए।
से वि तत्थ विअंतिकारए।
इच्चेतं विमोहायतणं हियं, सुहं, खमं, णिस्सेयसं, आणुगामियं। Translated Sutra: जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं आक्रान्त हो गया हूँ, और मैं इस अनुकूल परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में) कोई – कोई संयम का धनी भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण से उस उपसर्ग के वश न हो कर उसका सेवन न करने के लिए दूर हो जाता है। उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-५ ग्लान भक्त परिज्ञा | Hindi | 229 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायतइएहिं, तस्स णं नो एवं भवति–तइयं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जाइं वत्थाइं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियाइं वत्थाइं धारेज्जा।
णोधोएज्जा, णोरएज्जा, णोधोय-रत्ताइं वत्थाइं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं।
अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णाइं वत्थाइं परिट्ठवेत्ता–
अदुवा एगसाडे।
अदुवा अचेले।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया।
जस्स Translated Sutra: जो भिक्षु दो वस्त्र और तीसरे पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूँ। वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों की याचना करे। इससे आगे वस्त्र – विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गई है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-५ ग्लान भक्त परिज्ञा | Hindi | 230 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे–अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिण्णत्तेहिं, गिलानो अगिलाणेहिं, अभिकंख साह-म्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं सातिज्जिस्सामि। अहं वा वि खलु अपडिण्णत्तो पडिण्णत्तस्स, अगिलानो गिलाणस्स, अभिकंख साहम्मिअस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए।
आहट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं आणक्खेस्सामि, आहडं च णोसाति-ज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं णोआणक्खेस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि, आहट्टु पइण्णं णोआणक्खेस्सामि, आहडं च णोसाति-ज्जिस्सामि।
‘लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वताए Translated Sutra: जिस भिक्षु का यह प्रकल्प होता है कि मैं ग्लान हूँ, मेरे साधर्मिक साधु अग्लान हैं, उन्होंने मुझे सेवा करने का वचन दिया है, यद्यपि मैंने अपनी सेवा के लिए उनसे निवेदन नहीं किया है, तथापि निर्जरा की अभिकांक्षा से साधर्मिकों द्वारा की जाने वाली सेवा मैं रुचिपूर्वक स्वीकार करूँगा। (१) (अथवा) मेरा साधर्मिक भिक्षु ग्लान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 231 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू एगेण वत्थेण परिवुसिते पायबिइएण, तस्स नो एवं भवइ–बिइयं वत्थं जाइस्सामि।
से अहेसणिज्जं वत्थं जाएज्जा।
अहापरिग्गहियं वत्थं धारेज्जा।
नो धोएज्जा, नो रएज्जा, नो धोय-रत्तं वत्थं धारेज्जा।
अपलिउंचमाणे गामंतरेसु।
ओमचेलिए।
एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं।
अह पुण एवं जाणेज्जा–उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुण्णं वत्थं परिट्ठवेत्ता– ‘अदुवा अचेले’।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमण्णागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: जो भिक्षु एक वस्त्र और दूसरा पात्र रखने की प्रतिज्ञा स्वीकार कर चूका है, उसके मन में ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि में दूसे वस्त्र की याचना करूँगा। वह यथा – एषणीय वस्त्र की याचना करे। यहाँ से लेकर आगे ‘ग्रीष्मऋतु आ गई’ तक का वर्णन पूर्ववत्। भिक्षु यह जान जाए कि अब ग्रीष्म ऋतु आ गई है, तब वह यथापरिजीर्ण वस्त्रों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 232 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ–एगो अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न याहमवि कस्सइ, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवइ।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाए कि ‘मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और न मैं किसी का हूँ,’ वह अपनी आत्मा को एकाकी ही समझे। (इस प्रकार) लाघव का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (वह सहाय – विमोक्ष करे तो) उसे तप सहज में प्राप्त हो जाता है। भगवान ने इसका जिस रूप में प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 233 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेमाणे णोवामाओ हणुयाओ दाहिणं हणुयं संचारेज्जा आसाएमाणे, दाहिणाओ वा हणुयाओ वामं हणुयं नो संचारेज्जा आसाएमाणे, से अणासायमाणे।
लाघवियं आगममाणे।
तवे से अभिसमन्नागए भवइ।
जमेयं भगवता पवेइयं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी अशन आदि आहार करते समय आस्वाद लेते हुए बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए, दाहिने जबड़े से बाँए जबड़े में न ले जाए। यह अनास्वाद वृत्ति से लाघव का समग्र चिन्तन करते हुए (आहार करे)। (स्वाद – विमोक्ष से) वह तप का सहज लाभ प्राप्त करता है। भगवान ने जिस रूप में स्वाद – विमोक्ष का प्रतिपादन किया है, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 234 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–से ‘गिलामि च’ खलु अहं इमंसि समए इमं सरीरगं अणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता, कसाए पयणुए किच्चा, समाहियच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे। Translated Sutra: जिस भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो जाता है कि सचमुच मैं इस समय इस शरीर को वहन करने में क्रमशः ग्लान हो रहा हूँ, वह भिक्षु क्रमशः आहार का संवर्तन करे और कषायों को कृश करे। समाधियुक्त लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के लिए उत्थित होकर शरीर के सन्ताप को शान्त कर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-६ एकत्वभावना – इंगित मरण | Hindi | 235 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, निगमं वा, रायहाणिं वा, ‘तणाइं जाएज्जा, तणाइं जाएत्ता, से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणग-दग मट्टिय-मक्कडासंताणए, ‘पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय तणाइं संथरेज्जा, तणाइं संथरेत्ता’ एत्थ वि समए इत्तरियं कुज्जा।
तं सच्चं सच्चावादी ओए तिण्णे छिन्न-कहंकहे आतीतट्ठे अनातीते वेच्चाण भेउरं कायं, संविहूणिय विरूवरूवे परिसहोवसग्गे अस्सिं ‘विस्सं भइत्ता’ भेरवमणुचिण्णे।
तत्थावि Translated Sutra: क्रमशः ग्राम में, नगर में, खेड़े में, कर्बट में, मडंब में, पट्टन में, द्रोणमुख में, आकर में, आश्रम में, सन्निवेश में, निगम में या राजधानी में प्रवेश करके घास की याचना करे। उसे लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जहाँ कीड़े आदि के अंडे, जीव – जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, उदक, चींटियों के बिल, फफूँदी, काई, पानी का दलदल या मकड़ी के | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 236 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे भिक्खू अचेले परिवुसिते, ‘तस्स णं’ एवं भवति–चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासि-त्तए, तेउफासं अहियासित्तए, दंस-मसगफास अहियासित्तए, एगतरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छादणं चहं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पति कडि-बंधणं धारित्तए। Translated Sutra: जो भिक्षु अचेल – कल्प में स्थित है, उस भिक्षु का ऐसा अभिप्राय हो कि मैं घास के स्पर्श सहन कर सकता हूँ, गर्मी का स्पर्श सहन कर सकता हूँ, डाँस और मच्छरों के काटने को सह सकता हूँ, एक जाति के या भिन्न – भिन्न जाति, नाना प्रकार के अनुकूल या प्रतिकूल स्पर्शों को सहन करने में समर्थ हूँ, किन्तु मैं लज्जा निवारणार्थ प्रति | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 237 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अदुवा तत्थ परक्कमंतं भुज्जो अचेलं तणफासा फुसंति, सोयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दंस-मसगफासा फुसंति, गयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेति अचेले।
लाघवियं आगममाणे। तवे से अभिसमन्नागए भवति।
जमेयं भगवता पवेदितं, तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सव्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया। Translated Sutra: अथवा उस (अचेलकल्प) में ही पराक्रम करते हुए लज्जाजयी अचेल भिक्षु को बार – बार घास का स्पर्श चूभता है, शीत का स्पर्श होता है, गर्मी का स्पर्श होता है, डाँस और मच्छर काटते हैं, फिर भी वह अचेल उन एक – जातीय या भिन्न – भिन्न जातीय नाना प्रकार के स्पर्शों को सहन करे। लाघव का सर्वांगीण चिन्तन करता हुआ (वह अचेल रहे)। अचेल | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 238 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु दलइस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु दलइस्सामि, आहडं च णोसातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं च खलु ‘अन्नेसिं भिक्खूणं’ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु णोदलइस्सामि, आहडं च सातिज्जिस्सामि।
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–अहं खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहट्टु णोदलइस्सामि, आहडं च नो सातिज्जिस्सामि।
अहं च खलु तेण अहाइरित्तेणं अहेसणिज्जेणं Translated Sutra: जिस भिक्षु को ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा और उनके द्वारा लाये हुए का सेवन करूँगा। (१) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं को अशन आदि लाकर दूँगा, लेकिन उनके द्वारा लाये हुए का सेवन नहीं करूँगा। (२) अथवा जिस भिक्षु की ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-७ पादपोपगमन | Hindi | 239 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति–
से गिलामि च खलु अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं आणुपुव्वेण परिवहित्तए, से आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेज्जा, आणुपुव्वेणं आहारं संवट्टेत्ता कसाए पयणुए किच्चा समाहिअच्चे फलगावयट्ठी, उट्ठाय भिक्खू अभिणिव्वुडच्चे।
अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, निगमं वा, रायहाणिं वा, तणाइं जाएज्जा, तणाइं जाएत्ता से तमायाए एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता अप्पंडे अप्प-पाणे अप्प-बीए अप्प-हरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंग-पणगदग-मट्टिय-मक्कडासंताणए, पडिलेहिय-पडिलेहिय पमज्जिय-पमज्जिय Translated Sutra: जिस भिक्षु के मन में यह अध्यवसाय होता है कि मैं वास्तव में इस समय इस शरीर को क्रमशः वहन करने में ग्लान हो रहा हूँ। वह भिक्षु क्रमशः आहार का संक्षेप करे। आहार को क्रमशः घटाता हुआ कषायों को भी कृश करे। यों करता हुआ समाधिपूर्ण लेश्या वाला तथा फलक की तरह शरीर और कषाय, दोनों ओर से कृश बना हुआ वह भिक्षु समाधिमरण के | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-८ अनशन मरण | Hindi | 251 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए ।
आयवज्जं पडीयारं, विजहिज्जा तिहा तिहा ॥ Translated Sutra: ज्ञात – पुत्र ने भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगितमरण अनशन का यह आचार – धर्म बताया है। इसमें किसी भी अंगोपांग के व्यापार का, किसी दूसरे के सहारे का मन, वचन और काया से तथा कृत – कारित – अनुमोदित रूप से त्याग करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 274 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गढिए मिहो-कहासु, समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खू ।
एताइं सो उरालाइं, गच्छइ नायपुत्ते असरणाए ॥ Translated Sutra: परस्पर कामोत्तेजक बातों में आसक्त लोगों को ज्ञातपुत्र भगवान महावीर हर्षशोक से रहित होकर देखते थे। वे इन दुर्दमनीय को स्मरण न करते हुए विचरते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 276 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] पुढविं च आउकायं, तेउकायं च वाउकायं च ।
पणगाइं बीय-हरियाइं, तसकायं च सव्वसो नच्चा ॥ Translated Sutra: पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, निगोद – शैवाल आदि, बीज और नाना प्रकार की हरी वनस्पति एवं त्रसकाय – इन्हें सब प्रकार से जानकर। ‘ये अस्तित्ववान् है’ यह देखकर ‘ये चेतनावान् है’ यह जानकर उनके स्वरूप को भलीभाँति अवगत करके वे उनके आरम्भ का परित्याग करके विहार करते थे। सूत्र – २७६, २७७ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 277 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एयाइं संति पडिलेहे, चित्तमंताइं से अभिण्णाय ।
परिवज्जिया न विहरित्था, इति संखाए से महावीरे ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २७६ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 284 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] मायण्णे असण-पाणस्स, नाणुगिद्धे रसेसु अपडिण्णे ।
अच्छिंपि नो पमज्जिया, नो वि य कंडूयये मुनी गायं ॥ Translated Sutra: भगवान अशन – पान की मात्रा को जानते थे, वे रसों में आसक्त नहीं थे, वे (भोजन – सम्बन्धी) प्रतिज्ञा भी नहीं करते थे, मुनिन्द्र महावीर आँखमें रजकण आदि पड़ जाने पर भी उसका प्रमार्जन नहीं करते थे और न शरीर को खुजलाते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Hindi | 287 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: ज्ञानवान महामाहन महावीर ने इस विधि के अनुरूप आचरण किया। उपदेश दिया। अतः मुमुक्षुजन इसका अनुमोदन करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 291 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एतेहिं मुनी सयणेहिं, समणे आसी पत्तेरस वासे ।
राइं दिवं पि जयमाणे, अप्पमत्ते समाहिए झाति ॥ Translated Sutra: त्रिजगत्वेत्ता मुनीश्वर इन वासस्थानोंमें साधना काल के बारह वर्ष, छह महीने, पन्द्रह दिनों में शान्त और सम्यक्त्वयुक्त मन से रहे। वे रात – दिन प्रत्येक प्रवृत्ति में यतनाशील रहते थे तथा अप्रमत्त और समाहित अवस्था में ध्यान करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 292 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘णिद्दं पि णोपगामाए, सेवइ भगवं उट्ठाए’ ।
जग्गावती य अप्पाणं, ईसिं ‘साई या’ सी अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: भगवान निद्रा भी बहुत नहीं लेते थे। वे खड़े होकर अपने आपको जगा लेते थे। (कभी जरा – सी नींद ले लेते किन्तु सोने के अभिप्राय से नहीं सोते थे।) | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 294 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सयणेहिं तस्सुवसग्गा, भीमा आसी अनेगरूवा य ।
संसप्पगाय जे पाणा, अदुवा जे पक्खिनो उवचरंति ॥ Translated Sutra: उन आवास में भगवान को अनेक प्रकार के भयंकर उपसर्ग आते थे। कभी साँप और नेवला आदि प्राणी काट खाते, कभी गिद्ध आकर माँस नोचते। कभी उन्हें चोर या पारदारिक आकर तंग करते, अथवा कभी ग्रामरक्षक उन्हें कष्ट देते, कभी कामासक्त स्त्रियाँ और कभी पुरुष उपसर्ग देते थे। सूत्र – २९४, २९५ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 295 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अदु कुचरा उवचरंति, गामरक्खा य सत्तिहत्था य ।
अदु गामिया उवसग्गा, इत्थी एगतिया पुरिसा य ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र २९४ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 298 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] स जणेहिं तत्थ पुच्छिंसु, एगचरा वि एगदा राओ ।
अव्वाहिए कसाइत्था, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: कुछ लोग आकर पूछते – ‘तुम कौन हो ? यहाँ क्यों खड़े हो ?’ कभी अकेले घूमने वाले लोग रात में आकर पूछते – तब भगवान कुछ नहीं बोलते, इससे रुष्ट होकर दुर्व्यवहार करते, फिर भी भगवान समाधि में लीन रहते, परन्तु प्रतिशोध लेने का विचार भी नहीं उठता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 302 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तंसि भगवं अपडिण्णे, अहे वियडे अहियासए दविए ।
निक्खम्म एगदा राओ, चाएइ भगवं समियाए ॥ Translated Sutra: किन्तु उस शिशिर ऋतु में भी भगवान ऐसा संकल्प नहीं करते। कभी – कभी रात्रि में भगवान उस मंडप से बाहर चले जाते, मुहूर्त्तभर ठहर फिर मंडप में आते। उस प्रकार भगवान शीतादि परीषह समभाव से सहन करने में समर्थ थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-२ शय्या | Hindi | 303 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: मतिमान महामाहन महावीर ने इस विधि का आचरण किया जिस प्रकार अप्रतिबद्धविहारी भगवान ने बहुत बार इस विधि का पालन किया, उसी प्रकार अन्य साधु भी आत्म – विकासार्थ इस विधि का आचरण करते हैं – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 312 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उवसंकमंतमपडिण्णं, गामंतियं पि अप्पत्तं ।
पडिणिक्खमित्तु लूसिंसु, एत्तो परं पलेहित्ति ॥ Translated Sutra: आवश्यकतावश निवास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे। वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते, तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से नीकलकर भगवान को रोक लेते, उन पर प्रहार करते और कहते – ‘यहाँ से आगे कहीं दूर चले जाओ।’ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 315 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उच्चालइय णिहणिंसु, अदुवा आसणाओ खलइंसु ।
वोसट्ठकाए पणयासी, दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान को ऊंचा उठाकर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग आसन से दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान शरीर का व्युत्सर्ग किये हुए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णु प्रतिज्ञा से युक्त थे। अतएव वे इन परीषहों से विचलित नहीं होते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-३ परीषह | Hindi | 317 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेण मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: (स्थान और आसन के सम्बन्ध में) प्रतिज्ञा से मुक्त मतिमान, महामाहन भगवान महावीर ने इस विधि का अनेक बार आचरण किया; उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 318 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ओमोदरियं चाएत्ति, अपुट्ठे वि भगवं रोगेहिं ।
पुट्ठे वा से अपुट्ठे वा, नो से सातिज्जति तेइच्छं ॥ Translated Sutra: भगवान रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य तप करते थे। वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे। वे शरीर को आत्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे। सूत्र – ३१८, ३१९ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 319 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] संसोहणं च वमणं च, गायब्भंगणं सिणाणं च ।
संबाहणं ण से कप्पे, दंतपक्खालणं परिण्णाए ॥ Translated Sutra: देखो सूत्र ३१८ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 323 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि साहिए दुवे मासे, छप्पि मासे अदुवा अपिवित्ता ।
रायोवरायं अपडिण्णे, अन्नगिलायमेगया भुंजे ॥ Translated Sutra: उन्होंने कभी – कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया। वे रातभर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। कभी – कभी वे वासी भोजन भी करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 324 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] छट्ठेणं एगया भुंजे, अदुवा अट्ठमेण दसमेणं ।
दुवालसमेण एगया भुंजे, पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥ Translated Sutra: वे कभी बेले, कभी तेले, कभी चौले कभी पंचौले के अनन्तर भोजन करते थे। भोजन प्रति प्रतिज्ञारहित होकर समाधि का प्रेक्षण करते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 331 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि ज्झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए ज्झाणं ।
उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥ Translated Sutra: भगवान महावीर उकडू आदि आसनों में स्थित होकर ध्यान करते थे। ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में स्थित द्रव्य – पर्याय को ध्यान का विषय बनाते थे। वे असम्बद्ध बातों से दूर रहकर आत्म – समाधि में ही केन्द्रित रहते थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Hindi | 334 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] एस विही अणुक्कंतो, माहणेणं मईमया ।
‘अपडिण्णेण वीरेण, कासवेण महेसिणा’ ॥ Translated Sutra: किसी प्रतिज्ञारहित ज्ञानी महामाहन भगवानने अनेकबार इस विधि का आचरण किया, उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी अपने आत्म – विकास के लिए इसी प्रकार आचरण करते थे। ऐसा मैं कहता हूँ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 335 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठ समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा– पाणेहिं वा, पणएहिं वा, बीएहिं वा, हरिएहिं वा– संसत्तं, उम्मिस्सं, सीओदएण वा ओसित्तं, रयसा वा परिवासियं, तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा– परहत्थंसि वा परपायंसि वा– अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे वि संते नो पडिग्गाहेज्जा।
से य आहच्च पडिग्गाहिए सिया, से तं आयाय एगंतमवक्कमेज्जा, एगंतमवक्कमेत्ता– अहे आरामंसि वा अहे उवस्स-यंसि वा अप्पडे, अप्प-पाणे, अप्प-बीए, अप्प-हरिए, अप्पोसे, अप्पुदए, अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणए विगिंचिय-विगिंचिय, Translated Sutra: कोई भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा में आहार – प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होकर यह जाने कि यह अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य रसज आदि प्राणियों से, फफुंदी से, गेहूँ आदि के बीजों से, हरे अंकुर आदि से संसक्त है, मिश्रित है, सचित्त जल से गीला है तथा सचित्त मिट्टी से सना हुआ है; यदि इस प्रकार का अशन, पान, खाद्य, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 336 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जाओ पुण ओसहीओ जाणेज्जा–कसिणाओ, सासिआओ, अविदल-कडाओ, अतिरिच्छच्छिन्नाओ, अव्वोच्छि-न्नाओ, तरुणियं वा छिवाडिं अणभिक्कंता-भज्जियं पेहाए – अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा प्राप्त होने की आशा से प्रविष्ट हुआ भिक्षु या भिक्षुणी यदि इन औषधियों को जाने कि वे अखण्डित हैं, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक टुकड़े नहीं हुए हो, जिनका तिरछा छेदन नहीं हुआ है, जीव रहित नहीं है, अभी अधपकी फली है, जो अभी सचित्त या अभग्न है या अग्नि में भुँजी हुई नहीं है, तो उन्हें देखकर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 337 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जाओ पुण ओसहीओ जाणेज्जा– अकसिणाओ, असासियाओ, विदलकडाओ, तिरिच्छच्छिन्नाओ, वोच्छिन्नाओ, तरुणियं वा छिवाडिं अभिक्कंतं भज्जियं पेहाए– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–पिहुयं वा, बहुरजं वा, भुज्जियं वा, मंथु वा, चाउलं वा, चाउल-पलंबं वा सइं भज्जियं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा लेने के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसी औषधियों को जाने कि वे अखण्डित नहीं है, यावत् वे जीव रहित हैं, कच्ची फली अचित्त हो गई है, भग्न हैं या अग्नि में भुँजी हुई हैं, तो उन्हें देखकर, उन्हें प्रासुक एवं एषणीय समझकर प्राप्त होती हों तो ग्रहण कर ले। गृहस्थ के घर भिक्षा निमित्त गया | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 338 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–पिहुयं वा, बहुरजं वा, भुज्जियं वा, मंथु वा, चाउलं वा, चाउल-पलंबं वा असइं भज्जियं– दुक्खुत्तो वा भज्जियं, तिक्खुत्तो वा भज्जियं– फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसितुकामे नो अन्नउत्थिएण वा, गारत्थिएण वा, परिहारिओ अपरिहारिएण वा सद्धिं गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहिया वियार-भूमिं वा विहार-भूमिं वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा णोअन्नउ-त्थिएण वा, गारत्थिएण Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने के ईच्छुक भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा पिण्डदोषों का परिहार करने वाला साधु अपारिहारिक साधु के साथ भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में न तो प्रवेश करे, और न वहाँ से नीकले। वह भिक्षु या भिक्षुणी बाहर विचारभूमि या विहारभूमि से लौटते या वहाँ प्रवेश | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 339 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दुइज्जमाणे–नो अन्नउत्थिएण वा, गारत्थिएण वा, परिहारिओ अपरिहा-रिएण वा सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे नो अन्नउत्थियस्स वा, गारत्थियस्स वा, परिहारिओ अपरिहारिअस्स वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा देज्जा वा अणुपदेज्जा वा। Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या परपिण्डोपजीवी याचक को तथैव उत्तम साधु पार्श्वस्थादि शिथिलाचारी साधु को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तो स्वयं दे और न किसी से दिलाए। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 340 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं ‘समारब्भ समुद्दिस्स’ कीयं पामिच्च अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसं-तरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, ‘परिभुत्तं वा’ ‘अपरिभुत्तं वा’ आसेवियं वा अनासेवियं वा –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 341 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स, पाणाइं वा भूयाइं वा जीवाइं वा सत्ताइं वा समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा अनासेवियं वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह अशनादि आहार बहुत से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, कृपणों, याचकों को गिन – गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ है। वह आसेवन किया किया गया हो या न किया गया हो, उस आहार को अप्रासुक अनेषणीय समझकर मिलने पर ग्रहण न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 342 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह चतुर्विध आहार बहुत – से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, दरिद्रों और याचकों के उद्देश्य से प्राणादि आदि जीवों का समारम्भ करके यावत् लाकर दे रहा है, उस प्रकार के आहार को जो स्वयं दाता द्वारा कृत हो, बाहर नीकाला हुआ न हो, दाता द्वारा अधिकृत न हो, दाता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 343 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसितुकामे, सेज्जाइं पुण कुलाइं जाणेज्जा–इमेसु खलु कुलेसु नितिए पिंडे दिज्जइ, नितिए अग्ग-पिंडे दिज्जइ, नितिए भाए दिज्जइ, नितिए अवड्ढभाए दिज्जइ–तहप्पगाराइं कुलाइं नितियाइं नितिउमाणाइं, नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: गृहस्थ घरमें आहार – प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के ईच्छुक साधु साध्वी ऐसे कुलों को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता है, प्रतिदिन भाग या उपार्द्ध भाग दिया जाता है; इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन भिक्षाचरों का प्रवेश होता है, ऐसे कुलों में | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 344 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अट्ठमिपोसहिएसु वा, अद्धमासिएसु वा, मासिएसु वा, दोमासिएसु वा, तिमासिएसु वा, चाउमासिएसु वा, पंचमासिएसु वा, छमासिएसु वा उउसु वा, उउसंधीसु वा, उउपरियट्टेसु वा, बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए, ‘तिहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए’ ‘चउहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पेहाए’, कुंभीमुहाओ वा कलोवाइओ वा सण्णिहि-‘सण्णिचयाओ वा’ परिएसिज्जमाणे पेहाए– तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार – प्राप्ति के निमित्त प्रविष्ट होने पर अशन आदि आहार के विषय में यह जाने कि यह आहार अष्टमी पौषधव्रत के उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा अर्द्धमासिक, मासिक, द्विमासिक, त्रैमासिक, चातुर्मासिक, पंचमासिक और षाण्मासिक उत्सवों के उपलक्ष्य में तथा ऋतुओं, ऋतुसन्धियों एवं ऋतु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 345 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जाइं पुण कुलाइं जाणेज्जा, तं जहा–उग्ग-कुलाणि वा, ‘भोग-कुलाणि’ वा, राइण्ण-कुलाणि वा, खत्तिय-कुलाणि वा, इक्खाग-कुलाणि वा, हरिवंस-कुलाणि वा, एसिय-कुलाणि वा, वेसिय-कुलाणि वा, गंडाग-कुलाणि वा, कोट्टाग-कुलाणि वा, गामरक्खकुलाणि वा, पोक्कसालिय-कुलाणि वा–अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु कुलेसु अदुगुंछिएसु अगरहिएसु, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट होने पर जिन कुलों को जाने वे इस प्रकार हैं – उग्रकुल, भोगकुल, राज्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापित – कुल, बढ़ई – कुल, ग्रामरक्षककुल या तन्तुवायकुल, ये और इसी प्रकार के और भी कुल, जो अनिन्दित और अगर्हित हों, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 346 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा समवाएसु वा, पिंड-नियरेसु वा, इंद-महेसु वा, खंद-महेसु वा, रुद्द-महेसु वा, मुगुंद-महेसु वा, भूय -महेसु वा, जक्ख-महेसु वा, नाग-महेसु वा, थूभ-महेसु वा, चेतिय-महेसु वा, रुक्ख-महेसु वा, गिरि-महेसु वा, दरि-महेसु वा, अगड-महेसु वा, तडाग-महेसु वा, दह-महेसु वा, णई-महेसु वा, सर-महेसु वा, सागर-महेसु वा, आगर-महेसु वा–अन्नयरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरूवेसु महामहेसु वट्टमाणेसु......
बहवे समण-माहण-अतिहि-किविण-वणीमए एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए, दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय वह जाने कि यहाँ मेला, पितृपिण्ड के निमित्त भोज तथा इन्द्र – महोत्सव, स्कन्ध, रुद्र, मुकुन्द, भूत, यक्ष, नाग – महोत्सव तथा स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, कूप, तालाब, हृद, नदी, सरोवर, सागर या आकार सम्बन्धी महोत्सव एवं अन्य इसी प्रकार के विभिन्न |