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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 25 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] चउद्दसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाहम्मिएहिं, सोलसहिं गाहासोलसएहिं, सत्तरसविहे असंजमे, अट्ठारसविहे अबंभे, एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं, वीसाए असमाहिट्ठाणेहिं। Translated Sutra: इहलोक – परलोक आदि सात भय स्थान के कारण से, जातिमद – कुलमद आदि आँठ मद का सेवन करने से, वसति – शुद्धि आदि ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ का पालन न करने से, क्षमा आदि दशविध धर्म का पालन न करने से, श्रावक की ग्यारह प्रतिमा में अश्रद्धा करने से, बारह तरह की भिक्षु प्रतिमा धारण न करने से या उसके विषय में अश्रद्धा करने से, अर्थाय – | |||||||||
Aavashyakasutra | आवश्यक सूत्र | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Hindi | 34 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु
जावंत केई साहू
रयहरण-गुच्छ-पडिग्गहधरा पंचमहव्वयधरा अट्ठारस सहस्स सीलंगधरा अक्खयायारचरित्ता
ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि। Translated Sutra: ढ़ाई द्वीप में यानि दो द्वीप, दो समुद्र और अर्ध पुष्करावर्त द्वीप के लिए जो ५ – भारत, ५ – ऐरावत, ५ – महा विदेह रूप १५ कर्मभूमि में जो किसी साधु रजोहरण, गुच्छा और पात्र आदि को धारण करनेवाले, पाँच महाव्रत में परिणाम की बढ़ती हुई धारावाले, अठ्ठारह हजार शीलांग को धारण करनेवाले, अतिचार से जिसका स्वरूप दुषित नहीं हुआ है | |||||||||
Aavashyakasutra | આવશ્યક સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
अध्ययन-४ प्रतिक्रमण |
Gujarati | 34 | Sutra | Mool-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अड्ढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु
जावंत केई साहू
रयहरण-गुच्छ-पडिग्गहधरा पंचमहव्वयधरा अट्ठारस सहस्स सीलंगधरा अक्खयायारचरित्ता
ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि। Translated Sutra: અઢીદ્વીપ અને બે સમુદ્રમાંની પંદર કર્મભૂમિમાં જે કોઈ સાધુઓ રજોહરણ, ગુચ્છા તથા પાત્રાને ધારણ કરનારા, પંચ મહાવ્રતના ધારક, ૧૮,૦૦૦ શીલાંગના ધારક, અક્ષત આચાર ચારિત્રવાળા, તે બધાને શિર વડે, અંતઃકરણથી મસ્તક નમાવીને હું વાંદુ છું. | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 215 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावती बूया–आउसंतो समणा! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेतेमि, आवसहं वा समुस्सिणोमि, से भुंजह वसह आउसंतो समणा!
भिक्खू तं गाहावतिं समणसं सवयसं पडियाइक्खे–आउसंतो गाहावती! नो खलु ते वयणं आढामि, नो खलु ते वयणं Translated Sutra: वह भिक्षु कहीं जा रहा हो, श्मशान में, सून मकान में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के नीचे, कुम्भारशाला में या गाँव के बाहर कहीं खड़ा हो, बैठा हो या लेटा हुआ हो अथवा कहीं भी विहार कर रहा हो, उस समय कोई गृहपति उसके पास आकर कहे – ‘‘आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशन, पान, खाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन; प्राण, भूत, जीव | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Hindi | 216 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, निसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावती आयगयाए पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ, आवसहं वा समुस्सिनाति तं भिक्खुं परिघासेउं।
तं च भिक्खू जाणेज्जा– सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अन्नेसिं वा अंतिए सोच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं Translated Sutra: वह भिक्षु जा रहा है, यावत् लेटा हुआ है, अथवा कहीं भी विचरण कर रहा है, उस समय उस भिक्षु के पास आकर कोई गृहपति अपने आत्मगत भावों को प्रकट किये बिना प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के समारम्भपूर्वक अशन, पान आदि बनवाता है, साधु के उद्देश्य से मोल लेकर, यावत् घर से लाकर देना चाहता है या उपाश्रय कराता है, वह उस भिक्षु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 340 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं ‘समारब्भ समुद्दिस्स’ कीयं पामिच्च अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसं-तरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, ‘परिभुत्तं वा’ ‘अपरिभुत्तं वा’ आसेवियं वा अनासेवियं वा –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए Translated Sutra: गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 341 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स, पाणाइं वा भूयाइं वा जीवाइं वा सत्ताइं वा समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा अनासेवियं वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह अशनादि आहार बहुत से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, कृपणों, याचकों को गिन – गिनकर उनके उद्देश्य से बनाया हुआ है। वह आसेवन किया किया गया हो या न किया गया हो, उस आहार को अप्रासुक अनेषणीय समझकर मिलने पर ग्रहण न करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 342 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: वह भिक्षु या भिक्षुणी यावत् गृहस्थ के घर प्रविष्ट होने पर जाने कि यह चतुर्विध आहार बहुत – से श्रमणों, माहनों, अतिथियों, दरिद्रों और याचकों के उद्देश्य से प्राणादि आदि जीवों का समारम्भ करके यावत् लाकर दे रहा है, उस प्रकार के आहार को जो स्वयं दाता द्वारा कृत हो, बाहर नीकाला हुआ न हो, दाता द्वारा अधिकृत न हो, दाता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Hindi | 389 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं, जं परेहिं असमणुण्णायं अनिसिट्ठं –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
जं परेहिं समणुण्णायं सम्मं णिसिट्ठं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि जाने कि दूसरे के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए नीकाला गया है, यावत् अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर स्वीकार न करे। यदि गृहस्वामी आदि ने उक्त आहार ले जाने की भलीभाँति अनुमति दे दी है। उन्होंने वह आहार उन्हें अच्छी तरह से सौंप दिया है यावत् तुम जिसे चाहे दे सकते हो तो उसे यावत् प्रासुक | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 398 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा उवस्सयं एसित्तए, अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा, सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं। तहप्पगारे उवस्सए नो ‘ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा’।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं Translated Sutra: साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा करना चाहे तो ग्राम या नगर यावत् राजधानी में प्रवेश करके साधु के योग्य उपाश्रय का अन्वेषण करते हुए यदि यह जाने कि वह उपाश्रय अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो वैसे उपाश्रय में वह साधु या साध्वी स्थान, शय्या और निषीधिका न करे। वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अंडों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 414 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईण वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयारे-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणिय-सालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहाकम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, बद्ध-कम्मंताणि वा, वक्क-कम्मंताणि वा, Translated Sutra: आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कईं श्रद्धालु हैं जैसे कि गृहस्वामी, गृह – पत्नी, उसकी पुत्र – पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, धायमाताएं, दास – दासियाँ या नौकर – नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार – व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सूना है, किन्तु उन्होंने यह सून | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 415 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्म-करीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किविण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिआइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा।
जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अनभिक्कंत-किरिया वि भवति। Translated Sutra: हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में अनेक श्रद्धालु होते हैं, जैसे कि गृहपति यावत् नौकरानियाँ। निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार से अनभिज्ञ इन लोगों ने श्रद्धा, प्रतीति और अभिरुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह। ऐसे लोहकारशाला | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 417 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा भवनगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति, अयमाउसो! महावज्ज-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धालुजन होते हैं, जैसे कि गृहपति, यावत् दासियाँ आदि। वे उनके आचार – व्यवहार से तो अनभिज्ञ होते हैं, लेकिन वे श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण यावत् भिक्षाचरों को गिन – गिन कर उनके उद्देश्य से जहाँ – तहाँ लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 418 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिआइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भव-णगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति, अयमाउसो! सावज्ज-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कईं श्रद्धालु व्यक्ति होते हैं, जैसे कि – गृहपति, उसकी पत्नी यावत् नौकरानियाँ आदि। वे उनके आचार – व्यवहार से तो अज्ञात होते हैं, लेकिन श्रमणों के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से युक्त होकर सब प्रकार के श्रमणों के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह बनवाते हैं। सभी श्रमणों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Hindi | 419 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। महया पुढविकाय-समारंभेणं, महया आउकाय-समारंभेणं, महया तेउकाय-समारंभेणं, महया वाउकाय-समारंभेणं, महया वणस्सइकाय-समारंभेणं, महया तसकाय-समारंभेणं, महया संरंभेणं, महया समारंभेणं महया आरंभेणं, महया विरूवरूवेहिं पावकम्म-किच्चेहिं, तं जहा–छायणओ लेवनओ संथार-दुवार-पिहणओ। सीतोदए Translated Sutra: इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में गृहपति, उनकी पत्नी, पुत्री, पुत्रवधू आदि कईं श्रद्धा – भक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति हैं उन्होंने साधुओं के आचार – व्यवहार के सम्बन्ध में तो जाना – सूना नहीं है, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित होकर उन्होंने किसी एक ही प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 477 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं वत्थं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा अनासेवियं वा– अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए बहवे साहम्मिया समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं Translated Sutra: साधु या साध्वी को यदि वस्त्र के सम्बन्ध में ज्ञात हो जाए कि कोई भावुक गृहस्थ धन के ममत्व से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा करके किसी एक साधर्मिक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके यावत् (पिण्डैषणा समान) अनैषणीय समझकर मिलने पर भी न ले। तथा पिण्डैषणा अध्ययन में जैसे | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 480 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्चेयाइं आयतणाइं उवाइकम्म, अह भिक्खू जाणेज्जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए।
तत्थ खलु इमा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय-उद्दिसिय वत्थं जाएज्जा, तं जहा–जंगियं वा, भंगियं वा, साणयं वा, पोत्तयं वा, खोमियं वा, तूलकडं वा–तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पडिमा।
अहावरा दोच्चा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए वत्थं जाएज्जा, तं जहा–गाहावइं वा, गाहावइ-भारियं वा, गाहावइ-भगिनिं वा, गाहावइ-पुत्तं वा, गाहावइ-धूयं वा, सुण्हं वा, धाइं वा, दासं वा, दासिं वा, कम्मकरं वा, कम्मकरिं वा। से पुव्वामेव Translated Sutra: इन दोषों के आयतनों को छोड़कर चार प्रतिमाओं से वस्त्रैषणा करनी चाहिए। पहली प्रतिमा – वह साधु या साध्वी मन में पहले संकल्प किये हुए वस्त्र की याचना करे, जैसे कि – जांगमिक, भांगिक, सानज, पोत्रक, क्षौमिक या तूलनिर्मित वस्त्र, उस प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक और एषणीय होने पर ग्रहण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-१ | Hindi | 486 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, सेज्जं पुण पाय जाणेज्जा, तं जहा–अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा– तहप्पगारं पायं–
जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, नो बीयं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए पाय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं Translated Sutra: संयमशील साधु या साध्वी यदि पात्र ग्रहण करना चाहे तो जिन पात्रों को जाने वे इस प्रकार हैं – तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र। इन तीनों प्रकार के पात्रों को साधु ग्रहण कर सकता है। जो निर्ग्रन्थ तरुण बलिष्ठ स्वस्थ और स्थिर – सहन वाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं। वह साधु, साध्वी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-८ [१] स्थान विषयक |
Hindi | 497 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसेज्जा ‘गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा’, से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वा, सेज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं, तं तहप्प-गारं ठाणं–अफासुयं अणेस-णिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे ठाणे पडिलेहित्ता Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि किसी स्थान में ठहरना चाहे तो तो वह पहले ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में पहुँचे। वहाँ पहुँच कर वह जिस स्थान को जाने कि यह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थान को अप्रासुक एवं अनैषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। इसी प्रकार यहाँ से उदकप्रसूत कंदादि तक का स्थानैषणा सम्बन्धी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-९ [२] निषिधिका विषयक |
Hindi | 498 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं निसीहियं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो चेतिस्सामि [चेएज्जा?]
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा–अप्पडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं निसीहियं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते चेतिस्सामि [चेएज्जा?]
सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं Translated Sutra: जो साधु या साध्वी प्रासुक – निर्दोष स्वाध्याय – भूमि में जाना चाहे, वह यदि ऐसी स्वाध्याय – भूमि को जाने, जो अण्डों, जीव – जन्तुओं यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो तो उस प्रकार की निषीधिका को अप्रासुक एवं अनैषणीय समझकर मिलने पर कहे कि मैं इसका उपयोग नहीं करूँगा। जो साधु या साध्वी यदि ऐसी स्वाध्याय – भूमि को जाने, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१० [३] उच्चार प्रश्नवण विषयक |
Hindi | 499 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवण-किरियाए उव्वाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाएज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीअं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग -दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए Translated Sutra: साधु या साध्वी को मल – मूत्र की प्रबल बाधा होने पर अपने पादपुञ्छनक के अभाव में साधर्मिक साधु से उसकी याचना करे। साधु या साध्वी ऐसी स्थण्डिल भूमि को जाने, जो कि अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थण्डिल पर मल – मूत्र विसर्जन न करे। साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो प्राणी, बीज, यावत् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 520 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमनाभिप्पायं जानेत्ता भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि-सएहिं रूवेहिं, सएहिं-सएहिं नेवत्थेहिं, सएहिं-सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्ढीए सव्वजुतीए सव्वबल-समुदएणं सयाइं-सयाइं जाण विमाणाइं दुरुहंति, सयाइं-सयाइं जाणविमाणाइं दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाइं परिसाडेति, अहा-बादराइं पोग्गलाइं परिसाडेत्ता अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइंति, अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइत्ता उड्ढं उप्पयंति, उड्ढं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाइं Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने – अपने रूप से, अपने – अपने वस्त्रों में और अपने – अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी – अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति और समस्त बल – समुदाय सहित अपने – अपने यान – विमानों पर चढ़ते हैं फिर सब | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन – सम्बन्धी वर्ग | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 550 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुद्दं व भुयाहि दुत्तरं ।
अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुनी अंतकडे त्ति वुच्चइ ॥ Translated Sutra: कहा है – अपार सलिल – प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है, वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है। अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को जानकर उसका परित्याग कर दे। इस प्रकार पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Gujarati | 215 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, णिसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा, सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावती बूया–आउसंतो समणा! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेतेमि, आवसहं वा समुस्सिणोमि, से भुंजह वसह आउसंतो समणा!
भिक्खू तं गाहावतिं समणसं सवयसं पडियाइक्खे–आउसंतो गाहावती! नो खलु ते वयणं आढामि, नो खलु ते वयणं Translated Sutra: તે ભિક્ષુ સ્મશાનમાં, શૂન્યગૃહમાં, પર્વત ગુફામાં, વૃક્ષમૂળમાં કે કુંભારના ખાલી ઘરમાં ફરતો હોય, ઊભો હોય, બેઠો હોય, સૂતો હોય કે બીજે ક્યાંય વિચરતો હોય તે સમયે કોઈ ગૃહસ્થ તેની પાસે આવીને કહે, હે આયુષ્માન્ શ્રમણ હું આપના માટે અશન, પાન, ખાદિમ સ્વાદિમ, વસ્ત્ર, પાત્ર, કંબલ કે રજોહરણ, પ્રાણ, ભૂત, જીવ અને સત્ત્વોનો સમારંભ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Gujarati | 216 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिट्ठेज्ज वा, निसीएज्ज वा, तुयट्टेज्ज वा सुसाणंसि वा, सुन्नागारंसि वा, गिरिगुहंसि वा, रुक्खमूलंसि वा, कुंभारायतणंसि वा, हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खुं उवसंकमित्तु गाहावती आयगयाए पेहाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ, आवसहं वा समुस्सिनाति तं भिक्खुं परिघासेउं।
तं च भिक्खू जाणेज्जा– सहसम्मइयाए, परवागरणेणं, अन्नेसिं वा अंतिए सोच्चा अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं Translated Sutra: તે મુનિ સ્મશાનાદિમાં ફરતા હોય અથવા અન્ય ક્યાંય વિચરતા હોય, તેની પાસે આવીને કોઈ ગૃહસ્થ પોતાના આત્મગત ભાવોને પ્રગટ કર્યા વિના મુનિના માટે આરંભ કરી અશન આદિ, વસ્ત્રાદિ આપે કે મકાન બનાવે; એ વાત મુનિ સ્વ બુદ્ધિએ, બીજાના કહેવાથી કે કોઈ પાસે સાંભળીને જાણી લે કે આ ગૃહસ્થે મારા માટે આહાર, વસ્ત્ર યાવત્ મકાન બનાવેલ છે; | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 340 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स, पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं ‘समारब्भ समुद्दिस्स’ कीयं पामिच्च अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसं-तरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, ‘परिभुत्तं वा’ ‘अपरिभुत्तं वा’ आसेवियं वा अनासेवियं वा –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए Translated Sutra: સાધુ કે સાધ્વી ગૃહસ્થના ઘરમાં ભિક્ષાને માટે પ્રવેશીને જાણે કે આ અશનાદિ ‘‘આ સાધુ નિર્ધન છે’’ એમ વિચારીને કોઈ એક સાધર્મિક સાધુ માટે પ્રાણી – ભૂત – જીવ – સત્ત્વનો અર્થાત્ એકેન્દ્રિયાદિ જીવોનો આરંભ કરીને તૈયાર કર્યો છે, ઉદ્દિષ્ટ છે, ખરીદ્યો છે, ઉધાર લીધો છે, છીનવેલો છે, બધાં સ્વામીની અનુજ્ઞા વિના આપેલ છે, સામો | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 341 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स, पाणाइं वा भूयाइं वा जीवाइं वा सत्ताइं वा समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएइ। तं तहप्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा अनासेवियं वा–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा। Translated Sutra: તે સાધુ – સાધ્વી યાવત્ જે આહારના વિષયમાં એમ જાણે કે આ અશનાદિ ઘણા જ શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, અતિથિ, કૃપણ કે વનીપક માટે ગણી ગણીને તેમને ઉદ્દેશીને પ્રાણી આદિ જીવોનો સમારંભ કરીને બનાવેલ છે તેવો આહાર યાવત્ અપ્રાસુક અને અનેષણીય માનીને મળવા છતાં સાધુ તે ગ્રહણ ન કરે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 342 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: Translated Sutra: સાધુ – સાધ્વી ગૃહસ્થના ઘેર પ્રવેશીને જાણે કે તે અશનાદિ ઘણા શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, અતિથિ, કૃપણ, વનીપકને ઉદ્દેશીને યાવત્ બનાવેલ છે. તે અશનાદિ બીજા પુરૂષને સોંપેલ ન હોય, બહાર કાઢેલ ન હોય, નિશ્રામાં લીધેલ ન હોય, ભોગવેલ ન હોય, સેવેલ ન હોય; તો તેવું અપ્રાસુક અને અનેષણીય જાણી ગ્રહણ ન કરે. પણ એમ જાણે કે પુરૂષાંતરકૃત અર્થાત્ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-९ | Gujarati | 389 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे सेज्जं पुण जाणेज्जा–असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं, जं परेहिं असमणुण्णायं अनिसिट्ठं –अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
जं परेहिं समणुण्णायं सम्मं णिसिट्ठं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: તે સાધુ કે સાધ્વી યાવત્ જાણે કે આ અશનાદિ બીજાને ઉદ્દેશીને બહાર લાવેલ છે અને તેમણે મને આપવાની અનુમતિ આપી નથી અથવા અનિસૃષ્ટ છે અર્થાત્ આપનાર કે લેનાર બેમાંથી એકની ઈચ્છા નથી તો તેવા અશનાદિને અપ્રાસુક જાણી ગ્રહણ ન કરે. પરંતુ જેના માટે તે આહાર પાણી લાવ્યા હોય તેમની આજ્ઞાથી આપે અથવા તેમનો ભાગ આપી દીધા પછી દાતા | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 398 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा उवस्सयं एसित्तए, अणुपविसित्ता गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कब्बडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा, सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं। तहप्पगारे उवस्सए नो ‘ठाणं वा, सेज्जं वा, निसीहियं वा चेतेज्जा’।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं Translated Sutra: તે સાધુ કે સાધ્વી ઉપાશ્રયની ગવેષણા કરવા ઇચ્છે તો ગામ યાવત્ રાજધાનીમાં પ્રવેશીને તે જાણે કે આ ઉપાશ્રય ઇંડા યાવત્ જાળાથી યુક્ત છે, તો તેવા પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં સ્થાન, શય્યા કે સ્વાધ્યાય ન કરે. પણ જે ઉપાશ્રયને ઇંડા યાવત્ જાળાથી રહિત જાણે તે પ્રકારના ઉપાશ્રયનું સારી રીતે પડિલેહણ – પ્રમાર્જન કરી ત્યાં સ્થાન, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Gujarati | 414 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईण वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा, गाहावइणीओ वा, गाहावइ-पुत्ता वा, गाहावइ-धूयाओ वा, गाहावइ-सुण्हाओ वा, धाईओ वा, दासा वा, दासीओ वा, कम्मकरा वा, कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयारे-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा, आयतणाणि वा, देवकुलाणि वा, सहाओ वा पवाओ वा, पणिय-गिहाणि वा, पणिय-सालाओ वा, जाण-गिहाणि वा, जाण-सालाओ वा, सुहाकम्मंताणि वा, दब्भ-कम्मंताणि वा, बद्ध-कम्मंताणि वा, वक्क-कम्मंताणि वा, Translated Sutra: આ જગતમાં પૂર્વાદિ દિશાઓમાં ગૃહપતિ યાવત્ નોકરાણી જેવા કેટલાક શ્રદ્ધાળુઓ હોય છે, તેઓએ સાધુના આચાર – વિચાર સારી રીતે સાંભળેલા હોતા નથી. તે ગૃહસ્થો સાધુ પ્રત્યે શ્રદ્ધા, પ્રીતિ, રુચિ રાખતા ઘણા પ્રકારના શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, અતિથિ, કૃપણ, વનીપકને આશ્રીને રહેવા સ્થાનાદિ તૈયાર કરાવે છે. જેવા કે – લુહારશાળા, આયતન, દેવકુલ, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Gujarati | 415 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्म-करीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किविण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिआइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा।
जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अनभिक्कंत-किरिया वि भवति। Translated Sutra: આ જગતમાં પૂર્વ આદિ દિશામાં રહેતા ગૃહસ્થ યાવત્ ઘણા શ્રમણ, આદિને ઉદ્દેશીને વિશાળ મકાન બનાવે. જેમ કે લુહાર શાળા યાવત્ ભવનગૃહ. જે સાધુ આવા ગૃહોમાં ઊતરે કે જ્યાં ચરકાદિ પરિવ્રાજક વગેરે કોઈ પહેલાં રહ્યા ન હોય, તો તે અનભિક્રાંત ક્રિયા વસતી કહેવાય. આવા પ્રકારની વસ્તીમાં રહેવું સાધુને કલ્પનીય નહિ. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Gujarati | 417 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए पगणिय-पगणिय समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा भवनगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति, अयमाउसो! महावज्ज-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: આ જગતમાં પૂર્વાદિ ચારે દિશામાં કેટલાક શ્રદ્ધાળુ હોય છે. તેઓને સાધુના આચાર ગોચરનું જ્ઞાન હોતું નથી યાવત્ શ્રદ્ધાથી ઘણા શ્રમણ, બ્રાહ્મણ યાવત્ વનીપકની ગણના કરીને તેમના માટે તે ગૃહસ્થો મકાનો બનાવે છે – જેવા કે લુહારશાળા યાવત્ ભવનગૃહ. જે સાધુ તેવા પ્રકારના ગૃહોમાં નિવાસ કરે છે કે એક બીજાના આપેલા ગૃહોમાં | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Gujarati | 418 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिआइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भव-णगिहाणि वा उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इतरेतरेहिं पाहुडेहिं वट्टंति, अयमाउसो! सावज्ज-किरिया वि भवइ। Translated Sutra: આ સંસારમાં પૂર્વાદિ દિશામાં કેટલાક શ્રદ્ધાળુ રહે છે, જે શ્રદ્ધા, પ્રીતિ અને રુચિથી ઘણા શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, અતિથિ, કૃપણ, વનીપક ને ગણી – ગણીને તેમના માટે લુહારશાળા યાવત્ ભવનગૃહો બનાવે છે. જે સાધુ આવી લુહારશાળાદિમાં નિવાસ કરે કે એક બીજાના આપેલા ગૃહોમાં રહે છે તે હે આયુષ્યમાન્ ! સાવદ્યક્રિયા વસતી છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-२ शय्यैषणा |
उद्देशक-२ | Gujarati | 419 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्ढा भवंति, तं जहा–गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे नो सुणिसंते भवइ।
तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहिं, तं रोयमाणेहिं एगं समणजायं समुद्दिस्स तत्थ-तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेतिताइं भवंति, तं जहा–आएसणाणि वा जाव भवनगिहाणि वा। महया पुढविकाय-समारंभेणं, महया आउकाय-समारंभेणं, महया तेउकाय-समारंभेणं, महया वाउकाय-समारंभेणं, महया वणस्सइकाय-समारंभेणं, महया तसकाय-समारंभेणं, महया संरंभेणं, महया समारंभेणं महया आरंभेणं, महया विरूवरूवेहिं पावकम्म-किच्चेहिं, तं जहा–छायणओ लेवनओ संथार-दुवार-पिहणओ। सीतोदए Translated Sutra: આ જગતમાં પૂર્વાદિ દિશામાં શ્રદ્ધાળુ રહે છે યાવત્ કેવળ રુચિ માત્રથી કોઈ એક શ્રમણવર્ગને ઉદ્દેશીને ગૃહસ્થો લુહારશાળા યાવત્ ગૃહો બનાવે છે. તેઓ ઘણા જ પૃથ્વીકાય યાવત્ ત્રસકાયનો આરંભ કરીને, વિવિધ પ્રકારના ઘણા પાપકર્મો કરીને જેવા કે – આચ્છાદન, લેપન, બેઠક કે દ્વાર બંધ કરવા, શીતજળ નાંખવુ, અગ્નિકાયને પૂર્વે પ્રગટાવવો | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Gujarati | 477 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं वत्थं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं वा अनीहडं वा, अत्तट्ठियं वा अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा, आसेवियं वा अनासेवियं वा– अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए बहवे साहम्मिया समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं Translated Sutra: સાધુ – સાધ્વી જો વસ્ત્રના સંબંધે એમ જાણે કે આ વસ્ત્ર એક સાધુને ઉદ્દેશીને પ્રાણ આદિ હિંસા કરીને બનાવેલ છે તો ન લે. ઇત્યાદિ પિંડૈષણા અધ્યયન મુજબ જાણવુ, એ જ રીતે ઘણા સાધુ, એક સાધ્વી, ઘણા સાધ્વી તથા ઘણા શ્રમણ – બ્રાહ્મણ સંબંધી સૂત્રો ‘પિંડૈષણા’ મુજબ જાણવા. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Gujarati | 480 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्चेयाइं आयतणाइं उवाइकम्म, अह भिक्खू जाणेज्जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए।
तत्थ खलु इमा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय-उद्दिसिय वत्थं जाएज्जा, तं जहा–जंगियं वा, भंगियं वा, साणयं वा, पोत्तयं वा, खोमियं वा, तूलकडं वा–तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पडिमा।
अहावरा दोच्चा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए वत्थं जाएज्जा, तं जहा–गाहावइं वा, गाहावइ-भारियं वा, गाहावइ-भगिनिं वा, गाहावइ-पुत्तं वा, गाहावइ-धूयं वा, सुण्हं वा, धाइं वा, दासं वा, दासिं वा, कम्मकरं वा, कम्मकरिं वा। से पुव्वामेव Translated Sutra: ઉપરોક્ત દોષના સ્થાનો તજીને સંયમશીલ સાધુ – સાધ્વી આ ચાર પ્રતિજ્ઞાથી વસ્ત્ર યાચે – ૧. પહેલી પ્રતિજ્ઞા – સાધુ – સાધ્વી જાંગિક યાવત્ તૂલકૃત્ અર્થાત ઉનના વસ્ત્રથી લઈને સુતરાઉ વસ્ત્રોમાંથી કોઈ એક પ્રકારના વસ્ત્રનો સંકલ્પ કરે, તે જ પ્રકારના વસ્ત્રની યાચના કરે અથવા ગૃહસ્થ સ્વયં આપે તો પ્રાસુક હોય તો ગ્રહણ કરે. ૨. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-६ पात्रैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 486 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा पायं एसित्तए, सेज्जं पुण पाय जाणेज्जा, तं जहा–अलाउपायं वा, दारुपायं वा, मट्टियापायं वा– तहप्पगारं पायं–
जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, नो बीयं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयण-मेराए पाय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण पायं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्जं अनिसट्ठं अभिहडं आहट्टु चेएति। तं तहप्पगारं पायं पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा, बहिया नीहडं Translated Sutra: સાધુ – સાધ્વી પાત્ર ગ્રહણ કરવા ઇચ્છે તો આ ત્રણ પ્રકારના પાત્ર સ્વીકારે. તુંબ પાત્ર, કાષ્ઠ પાત્ર, માટી પાત્ર. આ પ્રકારનું કોઈ એક પાત્ર તરુણ યાવત્ દૃઢ સંઘયણવાળો સાધક રાખે – બીજું નહીં. તે સાધુ અર્ધયોજનથી આગળ પાત્ર લેવા જવાનો મનથી પણ વિચાર ન કરે. સાધુ – સાધ્વી એમ જાણે કે એક સાધર્મિક સાધુને ઉદ્દેશીને પ્રાણી આદિની | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-८ [१] स्थान विषयक |
Gujarati | 497 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा ठाणं ठाइत्तए, से अणुपविसेज्जा ‘गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा’, से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वा, सेज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणयं, तं तहप्प-गारं ठाणं–अफासुयं अणेस-णिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं। तहप्पगारे ठाणे पडिलेहित्ता Translated Sutra: સાધુ – સાધ્વી કોઈ સ્થાનમાં રહેવા ઇચ્છે તો ગામ યાવત્ રાજધાનીમાં પ્રવેશીને જે સ્થાનને જાણે કે, તે સ્થાન ઇંડા યાવત્ કરોળીયા ના જાળાથી યુક્ત છે, તે પ્રકારના સ્થાનને અપ્રાસુક અને અનેષણીય જાણી ગ્રહણ ન કરે. શેષ વર્ણન જલોત્પન્ન કંદ પર્યન્ત શય્યા અધ્યયન સમાન જાણવુ. સાધુઓએ સ્થાનના દોષો ત્યાગી ગવેષણા કરવી જોઈએ અને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-९ [२] निषिधिका विषयक |
Gujarati | 498 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं निसीहियं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो चेतिस्सामि [चेएज्जा?]
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा निसीहियं गमणाए, सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा–अप्पडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारं निसीहियं–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते चेतिस्सामि [चेएज्जा?]
सेज्जं पुण निसीहियं जाणेज्जा– अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं Translated Sutra: તે સાધુ – સાધ્વી પ્રાસુક સ્વાધ્યાય ભૂમિમાં જવા ઇચ્છે અને તે નિષિધિકા સ્વાધ્યાય ભૂમિ)ને જાણે કે તે જીવજંતુ યુક્ત છે તો તેવી ભૂમિને અપ્રાસુક જાણી ગ્રહણ ન કરે પણ જો તે પ્રાણ, બીજ યાવત્ જાળા વગરની ભૂમિ જાણે તો પ્રાસુક સમજી ગ્રહણ કરે. ઇત્યાદિ શય્યા અધ્યયન મુજબ ઉદગપ્રસૂત – પાણીમાં ઉત્પન્ન કંદ આદિ) પર્યન્ત જાણી | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१० [३] उच्चार प्रश्नवण विषयक |
Gujarati | 499 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उच्चारपासवण-किरियाए उव्वाहिज्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाएज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीअं सहरियं सउसं सउदयं सउत्तिंग-पणग -दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीअं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडासंताणयं, तहप्पगारंसि थंडिलंसि उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अस्सिंपडियाए Translated Sutra: તે સાધુ – સાધ્વી મળ – મૂત્રની તીવ્ર બાધા ઉત્પન્ન થાય ત્યારે પોતા પાસે પાદપ્રૌંછનક અર્થાત જિર્ણ વસ્ત્રખંડ ન હોય તો બીજા સાધુ પાસે માંગી મળ – મૂત્ર ત્યાગે. સાધુ – સાધ્વી જો જીવજંતુવાળી આદિ ભૂમિ જાણે તો યાવત્ તેવી ભૂમિમાં મળ – મૂત્ર વિસર્જન ન કરે. પણ સાધુ – સાધ્વી એમ જાણે કે આ સ્થંડિલ ભૂમિ જીવજંતુ આદિથી રહિત છે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Gujarati | 520 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमनाभिप्पायं जानेत्ता भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि-सएहिं रूवेहिं, सएहिं-सएहिं नेवत्थेहिं, सएहिं-सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्ढीए सव्वजुतीए सव्वबल-समुदएणं सयाइं-सयाइं जाण विमाणाइं दुरुहंति, सयाइं-सयाइं जाणविमाणाइं दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाइं परिसाडेति, अहा-बादराइं पोग्गलाइं परिसाडेत्ता अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइंति, अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइत्ता उड्ढं उप्पयंति, उड्ढं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाइं Translated Sutra: ત્યાર પછી શ્રમણ ભગવંત મહાવીરનો અભિનિષ્ક્રમણ અર્થાત સંયમગ્રહણનો અભિપ્રાય જાણીને ભવનપતિ, વ્યંતર, જ્યોતિષ્ક, વૈમાનિક દેવ – દેવીઓ પોતપોતાના રૂપ – વેશ અને ચિહ્નોથી યુક્ત થઈ, સર્વ ઋદ્ધિ – દ્યુતિ – સેના સમૂહની સાથે પોત – પોતાના યાન વિમાનો પર આરૂઢ થાય છે, થઈને બાદર પુદ્ગલોનો ત્યાગ કરી, સૂક્ષ્મ પુદ્ગલો ગ્રહણ કરી | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Gujarati | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: ત્યારપછી શ્રમણ ભગવંત મહાવીરને ક્ષાયોપશમિક સામાયિક ચારિત્ર સ્વીકારતા મનઃપર્યવજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું. જેનાથી અઢીદ્વીપ અને બે સમુદ્રમાં રહેલા પર્યાપ્ત સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય વ્યક્ત મનવાળા જીવોના મનોગત ભાવ જાણવા લાગ્યા. ત્યારપછી દીક્ષિત થયેલા શ્રમણ ભગવંત મહાવીરે મિત્રો, જ્ઞાતિજનો, સ્વજનો, સંબંધી આદિને વિસર્જિત | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Gujarati | 550 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, महासमुद्दं व भुयाहि दुत्तरं ।
अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुनी अंतकडे त्ति वुच्चइ ॥ Translated Sutra: અપાર જળ પ્રવાહવાળા સમુદ્રને ભૂજા વડે પાર કરવો દુસ્તર છે તેમ સંસાર સમુદ્રને પાર કરવો દુસ્તર છે, તેથી સંસારના સ્વરૂપને જાણીને, ત્યાગ કરનાર પંડિત મુનિ કર્મોનો અંત કરનાર કહેવાય છે. | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-१ अध्ययन-१ गौतम |
Hindi | 2 | Gatha | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १. गोयम २. समुद्द ३. सागर, ४. गंभीरे चेव होइ ५. थिमिए य ।
६. अयले ७. कंपिल्ले खलु, ८. अक्खोभ ९. पसेणई १०. विण्हू ॥ Translated Sutra: गौतम, समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजित् और विष्णुकुमार। | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-१ अध्ययन-१ गौतम |
Hindi | 3 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नामं नयरी होत्था–दुवालसजोयणायामा नवजोयणवित्थिण्णा धणवति-मइणिम्मया चामीकरपागारा नाणामणि-पंचवन्न-कविसीसगमंडिया सुरम्मा अलकापुरिसंकासा पमुदियपक्कीलिया पच्चक्खं देवलोगभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।
तीसे णं बारवईए णयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं रेवयए नामं पव्वए होत्था–वन्नओ।
तत्थ Translated Sutra: ‘‘भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त महावीर ने आठवें अंग अन्तगडसूत्र के प्रथम वर्ग के दश अध्ययन कथन किये हैं तो हे भगवन् ! अन्तगडसूत्र के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?’’ ‘‘जंबू ! उस काल और उस समय में द्वारका नाम की नगरी थी। वह बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी, वैश्रमण देव कुबेर के | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-१ अध्ययन-२ थी १० |
Hindi | 6 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते।
एवं जहा गोयमो तहा सेसा। अंधगवण्ही पिया, धारिणी माया। समुद्दे, सागरे, थिमिए, गंभीरे, अयले, कंपिल्ले, अक्खोभे, पसेणई, विण्हू एए एगगमा। Translated Sutra: ‘‘हे जंबू ! भगवान महावीर ने आठवें अंतगडसूत्र के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययनों का यह अर्थ कहा है। जिस प्रकार गौतम का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार समुद्र, सागर, गम्भीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजित और विष्णु, इन नव अध्ययनों का अर्थ भी समझ लेना। सब के पिता अन्धकवृष्णि थे। माता धारिणी थी। सब का वर्णन | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-२ अक्षोभ अदि अध्ययन-१ थी ८ |
Hindi | 8 | Gatha | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] १. अक्खोभ २. सागरे खलु, ३. समुद्द ४. हिमवंत ५. अचलनामे य ।
६. धरणे य ७. पूरणे य, ८. अभिचंदे चेव अट्ठमए ॥ Translated Sutra: अक्षोभ, सागर, समुद्र, हैमवन्त, अचल, धरण, पूर्ण और अभिचन्द्र। | |||||||||
Antkruddashang | अंतकृर्द्दशांगसूत्र | Ardha-Magadhi |
वर्ग-३ अनीयश अदि अध्ययन-१ अनीयश |
Hindi | 10 | Sutra | Ang-08 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स अयमट्ठे पन्नत्ते तच्चस्स णं भंते! वग्गस्स अंतगडदसाणं समणेणं भगवया महावीरेणं के अट्ठे पन्नत्ते?
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा–१. अनीयसे २. अनंतसेने ३. अजियसेने ४. अणिहयरिऊ ५. देवसेने ६. सत्तुसेने ७. सारणे ८. गए ९. समुद्दे १०. दुम्मुहे ११. कूवए १२. दारुए १३. अनाहिट्ठी।
जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स तेरस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स अंतगडदसाणं Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने अंतगडदशा के तृतीय वर्ग के १३ अध्ययन फरमाये हैं – जैसे कि – अनीयस, अनन्तसेन, अनिहत, विद्वत्, देवयश, शत्रुसेन, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख, कूपक, दारुक और अनादृष्टि। भगवन् ! यदि श्रमण यावत् मोक्षप्राप्त भगवान महावीर ने अन्तगडदशा के १३ अध्ययन बताये हैं तो भगवन् ! अन्तगडसूत्र के तीसरे |