Welcome to the Jain Elibrary: Worlds largest Free Library of JAIN Books, Manuscript, Scriptures, Aagam, Literature, Seminar, Memorabilia, Dictionary, Magazines & Articles
Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-४ भाषाजात |
उद्देशक-२ क्रोधादि उत्पत्तिवर्जन | Hindi | 472 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा, गोणं वा, महिसं वा, मिगं वा, पसुं वा, पक्खिं वा, सरीसिवं वा, जलयरं वा, से त्तं परिवूढकायं पेहाए नो एवं वएज्जा–थूले ति वा, पमेइले ति वा, वट्टे ति वा, वज्झे ति वा, पाइमे ति वा– एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव भूतोवघाइयं अभिकंख नो भासेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा, गोणं वा, महिसं वा, मिगं वा, पसुं वा, पक्खिं वा, सरीसिवं वा, जल-यरं वा, से त्तं परिवूढकायं पेहाए एवं वएज्जा, तं जहा– परिवूढकाए ति वा, उवचियकाए ति वा, थिरसंघयणे ति वा, चियमंससो-णिए ति वा, बहुपडिपुण्णइंदिए ति वा– एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभूतोवघाइयं अभिकंख भासेज्जा।
से भिक्खू Translated Sutra: संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, बैल, यावत् किसी भी विशालकाय प्राणी को देखकर ऐसे कह सकता है कि यह पुष्ट शरीर वाला है, उपचितकाय है, दृढ़ संहनन वाला है, या इसके शरीर में रक्त – माँस संचित हो गया है, इसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं। इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा बोले। साधु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-२ वस्त्र धारण विधि | Hindi | 485 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा नो वण्णमंताइं वत्थाइं विवण्णाइं करेज्जा, विवण्णाइं नो वण्णमंताइं करेज्जा, ‘अन्नं वा वत्थं लभिस्सामि’ त्ति कट्टु नो अन्नमन्नस्स देज्जा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वत्थेण वत्थ-परिणामं करेज्जा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेज्जा– ‘आउसंतो! समणा! अभिकंखसि मे वत्थं धारेत्तए वा, परिहरेत्तए वा? ’थिरं वा णं संतं नो पलिच्छिंदिय-पलिच्छिंदिय परिट्ठवेज्जा, जहा चेयं वत्थं पावगं परो मन्नइ।
परं च णं अदत्तहारिं पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स णिदाणाए नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छेज्जा, नो मग्गाओ मग्गं संकमेज्जा नो गहणं वा, वणं वा, दुग्गं वा अणुपविसेज्जा, नो रुक्खंसि Translated Sutra: साधु या साध्वी सुन्दर वर्ण वाले वस्त्रों को विवर्ण न करे, तथा विवर्ण वस्त्रों को सुन्दर वर्ण वाले न करे। ‘मैं दूसरा नया वस्त्र प्राप्त कर लूँगा’, इस अभिप्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र ले, और न ही वस्त्र की परस्पर अदलाबदली करे। दूसरे साधु के पास जाकर ऐसा न कहे – आयुष्मन् | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-१ | Hindi | 491 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा, गाहावइकुलेसु वा, परियावसहेसु वा अणुवीइ ओग्गहं जाएज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए, ते ओग्गहं अणुण्णवेज्जा। कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णातं वसामो, जाव आउसो, जाव आउसं-तस्स ओग्गहे, जाव साहम्मिया एत्ता, ताव ओग्गहं ओगिण्हिसामो, तेण परं विहरिस्सामो।
से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि? जे तत्थ साहम्मिया अन्नसंभोइया समणुण्णा उवागच्छेज्जा, जे तेणं सयमेसियाए पोढे वा, फलए वा, सेज्जा-संथारए वा, तेण ते साहम्मिए अन्नसंभोइए समणुण्णे उवणिमंतेज्जा, नो चेव णं पर-वडियाए उगिज्झिय-उगिज्झिय उवणिमंतेज्जा।
से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु Translated Sutra: पथिकशाला आदि अवग्रह को अनुज्ञापूर्वक ग्रहण कर लेने पर, फिर वह साधु क्या करे ? यदि वहाँ अन्य साम्भोगिक, साधर्मिक एवं समनोज्ञ साधु अतिथि रूप में आ जाए तो जो स्वयं गवेषणा करके लाए हुए पीठ, फलक, शय्यासंस्तारक आदि हों, उन्हें उन वस्तुओं के लिए आमंत्रित करें, किन्तु जो दूसरे के द्वारा या रुग्णादि अन्य साधु के लिए लाये | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१० [३] उच्चार प्रश्नवण विषयक |
Hindi | 500 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा, गाहावइ-पुत्ता वा कंदाणि वा, मूलाणि वा, [तयाणि वा?], पत्ताणि वा, पुप्फाणि वा, फलाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा अंतातो वा बाहिं णीहरंति, बहियाओ वा अंतो साहरंति, अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–खंधंसि वा, पीढंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, अट्टंसि वा, पासायंसि वा, अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अनंतरहियाए पुढवीए, ससिणिद्धाए पुढवीए, ससरक्खाए Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जान कि गृहपति या उसके पुत्र कन्द, मूल यावत् हरी जिसके अंदर से बाहर ले जा रहे हैं, या बाहर से भीतर ले जा रहे हैं, अथवा उस प्रकार की किन्हीं सचित्त वस्तुओं को इधर – उधर कर रहे हैं, तो वहाँ साधु – साध्वी मल – मूत्र विसर्जन न करे। ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि स्कन्ध पर, चौकी पर, मचान पर, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-११ [४] शब्द विषयक |
Hindi | 503 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, उप्पलाणि वा, पल्ललाणि वा, उज्झराणि वा, निज्झराणि वा, वावीणि वा, पोक्खराणि वा, दीहियाणि वा, गुंजालियाणि वा, सराणि वा, सागराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरसरपंतियाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–कच्छाणि वा, णूमाणि वा, गहणाणि वा, वनानि वा, वनदुग्गाणि वा, पव्वयाणि वा, पव्वयदुग्गाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से Translated Sutra: वह साधु या साध्वी कईं प्रकार के शब्द श्रवण करते हैं, जैसे कि – खेत की क्यारियों में तथा खाईयों में होने वाले शब्द यावत् सरोवरों में, समुद्रों में, सरोवर की पंक्तियों या सरोवर के बाद सरोवर की पंक्तियों के शब्द, अन्य इसी प्रकार के विविध शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के लिए जाने के लिए मन में संकल्प न करे। साधु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१३ [६] परक्रिया विषयक |
Hindi | 506 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] परकिरियं अज्झत्थियं संसेसियं–नो तं साइए, नो तं नियमे।
‘से से’ परो पादाइं आमज्जेज्ज वा, ‘पमज्जेज्ज वा’ – नो तं साइए, नो तं नियमे।
से से परो पादाइं संवाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा – नो तं साइए, नो तं नियमे।
से से परो पादाइं फूमेज्ज वा, रएज्ज वा–नो तं साइए, नो तं नियमे।
से से परो पादाइं तेल्लेण वा, घएण वा, वसाए वा मक्खेज्ज वा, भिलिंगेज्ज वा–नो तं साइए, नो तं
नियमे।
से से परो पादाइं लोद्धेण वा, कक्केण वा, चुण्णेण वा, वण्णेण वा उल्लोलेज्ज वा, उव्वलेज्ज वा–णो
तं साइए, नो तं नियमे।
से से परो पादाइं सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पधोएज्ज वा–नो तं साइए, नो तं नियमे।
से Translated Sutra: पर (गृहस्थ के द्वारा) आध्यात्मिकी मुनि के द्वारा कायव्यापार रूपी क्रिया (सांश्लेषिणी) कर्मबन्धन जननी है, (अतः) मुनि उसे मन से भी न चाहे, न उसके लिए वचन से कहे, न ही काया से उसे कराए। कदाचित् कोई गृहस्थ धर्म – श्रद्धावश मुनि के चरणों को वस्त्रादि से थोड़ा – सा पोंछे अथवा बार – बार पोंछ कर, साधु उस परक्रिया को मन से | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 512 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पालइत्ता, छण्हं जीवनिकायाणं संरक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरहित्ता पडिक्कमित्ता, अहारिहं उत्तरगुणं पायच्छित्तं पडिवज्जित्ता, कुससंथारं दुरुहित्ता भत्तं पच्चक्खाइंति, भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीर-संलेहणाए सोसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। तओ णं आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता महाविदेहवासे चरिमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर के माता पिता पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी थे, दोनों श्रावक – धर्म का पालन करने वाले थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक – धर्म का पालन करके षड्जीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा एवं पाप दोषों का प्रतिक्रमण करके, मूल और उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 520 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमनाभिप्पायं जानेत्ता भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि-सएहिं रूवेहिं, सएहिं-सएहिं नेवत्थेहिं, सएहिं-सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्ढीए सव्वजुतीए सव्वबल-समुदएणं सयाइं-सयाइं जाण विमाणाइं दुरुहंति, सयाइं-सयाइं जाणविमाणाइं दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाइं परिसाडेति, अहा-बादराइं पोग्गलाइं परिसाडेत्ता अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइंति, अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइत्ता उड्ढं उप्पयंति, उड्ढं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाइं Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने – अपने रूप से, अपने – अपने वस्त्रों में और अपने – अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी – अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति और समस्त बल – समुदाय सहित अपने – अपने यान – विमानों पर चढ़ते हैं फिर सब | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 521 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सीया उवणीया, जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स ।
ओसत्तमल्लदामा, जलथलयदिव्वकुसुमेहिं ॥ Translated Sutra: जरा – मरण से विमुक्त जिनवर महावीर के लिए शिबिका लाई गई, जो जल और स्थल पर उत्पन्न होने वाले दिव्यपुष्पों और देव निर्मित पुष्पमालाओं से युक्त थी। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 523 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] आलइयमालमउडो, भासुरबोंदी वराभरणधारी ।
खोमयवत्थणियत्थो, जस्स य मोल्लं सयसहस्सं ॥ Translated Sutra: उस समय भगवान महावीर श्रेष्ठ आभूषण धारण किये हुए थे, यथास्थान दिव्य माला और मुकुट पहने हुए थे, उन्हें क्षौम वस्त्र पहनाए थे, जिसका मूल्य एक लक्ष स्वर्णमुद्रा था। इन सबसे भगवान का शरीर देदीप्यमान हो रहा था। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 532 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, ‘हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं’ जोगोवगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, छट्ठेण भत्तेणं अपाणएणं, एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए सिवियाए सहस्सवाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे-समण्णिज्जमाणे उत्तरखत्तिय कुंडपुर-संणिवेसस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिंरयणिप्पमाणं अच्छुप्पेणं भूमिभागेणं सणियं-सणियं चंदप्पभं सिवियं सहस्सवाहिणिं ठवेइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत के विजय मुहूर्त्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्व गामिनी छाया होने पर, द्वीतिय पौरुषी प्रहर के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्त – प्रत्याख्यान के साथ एकमात्र | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन – सम्बन्धी वर्ग | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 541 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] अणिच्चमावासमुवेंति जंतुणो, पलोयए सोच्चमिदं अणुत्तरं ।
विऊसिरे विण्णु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए ॥ Translated Sutra: संसार के समस्त प्राणी जिन शरीर आदि में आत्माएं आवास प्राप्त करती हैं, वे सब स्थान अनित्य हैं। सर्वश्रेष्ठ मौनीन्द्र प्रवचन में कथित यह वचन सूनकर गहराई से पर्यालोचन करे तथा समस्त भयों से मुक्त बना हुआ विवेकी पुरुष आगारिक बंधनों का व्युत्सर्ग कर दे, एवं आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर दे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 548 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] तहा विमुक्कस्स परिण्णचारिणो, धिईमओ दुक्खमस्स भिक्खुनो ।
विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा । Translated Sutra: तथा सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा आचरण करने वाले, धृतिमान – दुःखों को सम्यक् प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चाँदी का मैल अलग हो जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 549 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] से हु प्परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय-मेहुणे चरे ।
भुजंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसेज्ज माहणे ॥ Translated Sutra: जैसे सर्प अपनी जीर्ण त्वचा – कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसा ही जो भिक्षु परिज्ञा – सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, लोक सम्बन्धी आशंसा से रहित, मैथुनसेवन से उपरत तथा संयम में विचरण करना, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-४ अध्ययन-१६ विमुक्ति |
Hindi | 552 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] इमंमि लोए ‘परए य दोसुवि’, ण विज्जइ बंधण जस्स किंचिवि ।
से हु निरालंबणे अप्पइट्ठिए, कलंकली भावपहं विमुच्चइ ॥
Translated Sutra: इस लोक, परलोक या दोनों लोकों में जिसका किंचिन्मात्र भी रागादि बन्धन नहीं है, तथा जो साधक निरालम्ब है, एवं जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं है, वह साधु निश्चय ही संसार में गर्भादि के पर्यटन के प्रपंच से विमुक्त हो जाता है। – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-२ पृथ्वीकाय | Gujarati | 17 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं ‘विरूवरूवेहिं सत्थेहिं’ पुढवि-कम्म-समारंभेणं पुढवि-सत्थं समारंभेमाणे अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसइ।
से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे, अप्पेगे गुप्फमब्भे, अप्पेगे गुप्फमच्छे, अप्पेगे जंघमब्भे, अप्पेगे जंघमच्छे, अप्पेगे जाणुमब्भे, अप्पेगे जाणुमच्छे, अप्पेगे ऊरुमब्भे, अप्पेगे ऊरुमच्छे, अप्पेगे कडिमब्भे, अप्पेगे कडिमच्छे, Translated Sutra: પૃથ્વીકાયનો સમારંભ અર્થાત્ હિંસા, તે હિંસા કરનાર જીવોને અહિતને માટે થાય છે, અબોધી અર્થાત્ બોધી બીજના નાશને માટે થાય છે. જે સાધુ આ વાતને સારી રીતે સમજે છે, તે સંયમ – સાધનામાં તત્પર થઈ જાય છે. ભગવંત અને શ્રમણના મુખેથી ધર્મશ્રવણ કરીને કેટલાક મનુષ્યો એવું જાણે છે કે – આ પૃથ્વીકાયની હિંસા ગ્રંથિ અર્થાત્ કર્મબંધનું | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-४ अग्निकाय | Gujarati | 37 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणि-कम्म-समारंभेणं अगणि-सत्थं समारंभमाणे, अन्ने वणेगरूवे पाणे विहिंसति। तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव अगणि-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा अगणि-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा अगणि-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा खलु भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेहिं नायं भवति– एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु नरए। इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं विरूवरूवेहिं Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અનેક પ્રકારના શસ્ત્રોથી અગ્નિકાયના સમારંભ દ્વારા અગ્નિકાય જીવોની તથા અન્ય અનેક પ્રકારના જીવોની હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ વિવેક કહેલ છે કે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-५ वनस्पतिकाय | Gujarati | 46 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लज्जमाणा पुढो पास।
अनगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइ-कम्म-समारंभेणं वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे अन्ने वगेणरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेदिता।
इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाती-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं।
से सयमेव वणस्सइ-सत्थं समारंभइ, अन्नेहिं वा वणस्सइ-सत्थं समारंभावेइ, अन्ने वा वणस्सइ-सत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे, आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवओ, अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं नायं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए।
इच्चत्थं गढिए लोए।
जमिणं Translated Sutra: હે શિષ્ય! સંયમી સાધુ હિંસાથી લજ્જા પામતા હોવાથી જીવ – હિંસા કરતા નથી તેને તું જો અને આ શાક્ય આદિ સાધુઓને તું જો ! કે જેઓ ‘‘અમે અણગાર છીએ’’ એમ કહીને અનેક પ્રકારના શસ્ત્રોથી વનસ્પતિ કર્મ સમારંભથી વનસ્પતિ જીવોની હિંસા કરતા બીજા પણ અનેક જીવોની હિંસા કરે છે. આ વિષયમાં ભગવંતે પરિજ્ઞા અર્થાત્ વિવેક કહ્યો છે. આ જીવનને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 68 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवाइय-सेसेण वा सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाणं भोयणाए।
तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया नियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: મનુષ્ય ઉપભોગ પછી બચેલી કે સંચિત કરી રાખેલી વસ્તુ બીજાને ઉપયોગી થશે તેમ માની રાખી મૂકે છે. પછી કોઈ વખતે તેને રોગની પીડા ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે જે સ્વજનાદિ સાથે તે વસે છે તેઓ જ તેને ઘૃણા કરી પહેલા છોડી દે છે. પછી તે પણ નિરાશ થઇ પોતાના સ્વજન – સ્નેહીઓને છોડી દે છે, આ સમયે તે ધન કે સ્વજન તારી રક્ષા કરવા કે શરણ આપવા સમર્થ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Gujarati | 73 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अरइं आउट्टे से मेहावी।
खणंसि मुक्के। Translated Sutra: અરતિ – સંયમમાં અરુચિથી નિવૃત્ત થયેલ બુદ્ધિમાન સાધક ક્ષણભરમાં વિષય,રતિ આદિથી મુક્ત થાય છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Gujarati | 75 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विमुक्का हु ते जना, जे जना पारगामिणो।
लोभं अलोभेण दुगंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ। Translated Sutra: જે મનુષ્ય જ્ઞાન – દર્શન – ચારિત્રનાં પારગામી’ છે તે જ ખરેખર પૂર્વ સંબંધોથી મુક્ત થાય છે. અલોભથી લોભને પરાજિત કરનારો કામભોગ પ્રાપ્ત થાય તો પણ ન સેવે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Gujarati | 76 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति-पासति।
पडिलेहाए नावकंखति।
एस अनगारेत्ति पवुच्चति।
अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विनिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो
से आय-बले, से नाइ-बले, से मित्त-बले, से पेच्च-बले, से देव-बले, से राय-बले, से चोर-बले, से अतिहि-बले, से किवण-बले, से समण-बले।
इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समायाणं।
सपेहाए भया कज्जति।
पाव-मोक्खोत्ति मन्नमाणे।
अदुवा आसंसाए। Translated Sutra: જે લોભથી નિવૃત્ત થઈ પ્રવ્રજ્યા લે છે, તે કર્મરહિત થઈ સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી બને છે. જે લોભના વિપાકોનો વિચાર કરી, આકાંક્ષા – રહિત બને છે, તે જ સાચા અણગાર કહેવાય છે. અજ્ઞાની જીવ રાતદિન દુઃખ પામતો, કાળ – અકાળની પરવા ન કરી સ્વજન તથા ધનાદિમાં આસક્ત બની ભોગવાંછુક, ધનલોભી, લૂંટારો, સહસાકાર્ય કરનાર, વ્યાકુળ ચિત્ત થઈ પુનઃ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Gujarati | 79 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समिते एयाणुपस्सी।
तं जहा–अंधत्तं बहिरत्तं मूयत्तं काणत्तं कुटत्तं खुज्जत्तं वडभत्तं सामत्तं सबलत्तं।
सहपमाएणं अनेगरूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ। Translated Sutra: પ્રત્યેક જીવને સુખ પ્રિય છે તે તું જાણ. તું આ વાત સમ્યક્ પ્રકારે વિચાર કે – અંધપણું, બધિરપણું, મૂકપણું, કાણપણું, લૂલાપણું, કુબડાપણું, કાળાપણું, કુષ્ટાદિ રોગત્વ આદિ પોતાના પ્રમાદથી જ પ્રાપ્ત થાય છે. પ્રમાદથી જ વિવિધ પ્રકારની યોનિમાં જાય છે અને વિવિધ વેદના અનુભવે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Gujarati | 95 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ।
गढिए अणुपरियट्टमाणे।
संधिं विदित्ता इह मच्चिएहिं।
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।
अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि, पासति पुढोवि सवंताइं।
पंडिए पडिलेहाए। Translated Sutra: દીર્ઘદર્શી અર્થાત્ આ – લોક પર – લોકના દુઃખને જોનાર, અને લોકદર્શી અર્થાત્ લોકના સ્વરૂપને જાણનાર – પુરુષ લોકના અધોભાગને, ઉર્ધ્વભાગને, તિર્છાભાગને જાણે છે. વિષયમાં આસક્ત લોકો સંસારમાં વારંવાર ભ્રમણ કરે છે. જે ‘સંધિ’ અર્થાત્ ધર્મના અવસરને જાણીને વિષયોથી દૂર રહે તે વીર છે, પ્રશંસનીય છે. જે સંસાર બંધનમાં બંધાયેલને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Gujarati | 96 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी।
मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए।
कासकंसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई, कडेण मूढे पुनो तं करेइ लोभं।
वेरं वड्ढेति अप्पणो।
जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवूहणयाए।
अमरायइ महासड्ढी।
अट्ठमेतं पेहाए।
अपरिण्णाए कंदति। Translated Sutra: તે મતિમાન ઉક્ત વિષય જાણીને વમન કરેલા ભોગોને પુનઃ ન સેવે. પોતાને તિર્છા વિપરીત) માર્ગમાં ન ફસાવે. આવો કામાસક્ત પુરૂષ મેં કર્યું, હું કરીશ એવા વિચારોથી ઘણી માયા કરીને મૂઢ બને છે. પછી તે લોભ કરીને પોતાના વૈર વધારે છે, તેથી એમ કહેવાય છે કે ભોગાસક્ત પુરૂષ ક્ષણભંગુર શરીરને પુષ્ટ બનાવવા પ્રયત્ન કરે છે, જાણે કે તે અજર | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Gujarati | 100 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे ममाइय-मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं।
से हु दिट्ठपहे मुनी, जस्स नत्थि ममाइयं।
तं परिण्णाय मेहावी।
विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, ‘से मतिमं’ परक्कमेज्जासि Translated Sutra: જે મમત્વ બુદ્ધિનો ત્યાગ કરે છે, તે મમત્વનો ત્યાગ કરે છે. જેને મમત્વ નથી તે જ મોક્ષમાર્ગને જાણનાર મુનિ છે, એવું જાણીને મેઘાવી મુનિ લોકના સ્વરૂપને જાણે, જાણીને લોકસંજ્ઞાનો ત્યાગ કરી સંયમમાં પુરૂષાર્થ કરે – એમ ભગવંતે કહ્યું તે હું તમને કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Gujarati | 103 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओघंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरत्ते, वियाहिते Translated Sutra: રાગ – દ્વેષ રહિત કે પરમાર્થદૃષ્ટિવાળા તે મુનિ લૂખો – સૂકો કે નિરસ આહાર કરે છે. આવા રુક્ષ – આહારી તેમજ સમત્વસેવી મુનિ ભવસમુદ્રને તરેલા, મુક્ત અને વિરત કહેવાય છે. તેમ હું તમને કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Gujarati | 105 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो।
जे अनन्नदंसी, से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे, से अनन्नदंसी॥
जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ॥ Translated Sutra: અહીં મનુષ્યોના જે દુઃખો અથવા દુઃખના કારણો બતાવ્યા છે. તેનાથી મુક્ત થવાનો માર્ગ તીર્થંકરો દેખાડે છે. દુઃખના આ કારણોને જાણીને, પ્રત્યાખ્યાન દ્વારા તેનો સર્વ પ્રકારે ત્યાગ કરવો સંયમ ગ્રહણ કરવો). જૈન સિવાયના તત્ત્વને માને તે અન્યદર્શી અને વસ્તુ તત્ત્વનાં યથાર્થ સ્વરૂપને જાણનાર તે અનન્યદર્શી, આવો સમ્યગ્દ્રષ્ટિ, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Gujarati | 106 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अवि य हणे अनादियमाणे। एत्थंपि जाण, सेयंति नत्थि।
के यं पुरिसे? कं च नए?
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिण्णचारी।
न लिप्पई छणपएण वीरे।
से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमन्नेसि।
कुसले पुण नोबद्धे, नोमुक्के। Translated Sutra: ધર્મોપદેશ સમયે ક્યારેક કોઈ શ્રોતા પોતાનાં સિદ્ધાંત કે મતનો અનાદર થવાથી ક્રોધિત થઇ ઉપદેશકને મારવા લાગે, તો ધર્મકથા કરનાર એમ જાણે કે અહીં ધર્મકથા કરવી કલ્યાણકારી નથી. ઉપદેશકે પહેલાં એ જાણવું જોઈએ કે – શ્રોતા કોણ છે ? તે ક્યા દેવને કે ક્યા સિદ્ધાંતને માને છે? ઉર્ધ્વદિશામાં રહેલ – જ્યોતિષ્ક આદિ, અધોદિશામાં રહેલ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Gujarati | 112 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सीओसिनच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णोवेदेति।
जागर-वेरोवरए वीरे।
एवं दुक्खा पमोक्खसि।
जरामच्चुवसोवणीए नरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति। Translated Sutra: તે નિર્ગ્રન્થ – મુનિ સુખ – દુઃખના ત્યાગી છે, અરતિ – રતિ સહન કરે છે. તેઓ કષ્ટ અને દુઃખનું વેદન કરતા નથી. તેઓ સદા જાગૃત રહે છે, વૈરથી દૂર રહે છે. હે વીર ! એ રીતે સંસારરૂપ દુઃખથી મુક્તિ પામીશ. વૃદ્ધત્વ અને મૃત્યુને વશ થયેલ મનુષ્ય સતત મૂઢ રહે છે તે ધર્મને જાણી શકતો નથી. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Gujarati | 113 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए।
मंता एयं मइमं! पास।
आरंभजं दुक्खमिणं ति नच्चा।
माई पमाई पुनरेइ गब्भं।
उवेहमानो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति।
अप्पमत्तो कामेहिं, उवरतो पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते ‘जे खेयण्णे’।
जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे।
अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
कम्मुणा उवाही जायइ। कम्मं च पडिलेहाए। Translated Sutra: સંસારમાં મનુષ્યને દુઃખથી પીડાતા જોઈને સાધક સતત અપ્રમત્ત બની સંયમમાં વિચરે. હે મતિમાન્ ! મનન કરી તું આ દુઃખી પ્રાણીને જો. તેઓના આ બધાં દુઃખ આરંભ અર્થાત્ હિંસાજનિત છે. તે જાણી તું અનારંભી બન. માયાવી, પ્રમાદી કષાયી પ્રાણી વારંવાર જન્મ – મરણ કરે છે. પરંતુ જે શબ્દાદિ વિષયમાં રાગ – દ્વેષ કરતા નથી, ઋજુતા આર્જવતા આદિ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Gujarati | 119 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस मरणा पमुच्चइ।
से हु दिट्ठपहे मुनी।
लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया जए कालकंखी परिव्वए।
बहुं च खलु पावकम्मं पगडं। Translated Sutra: તે અગ્રકર્મ અને મૂલકર્મના વિવેકને જાણનાર મુનિ મરણથી મુક્ત થાય છે, તે જ મુનિ સંસારના ભયથી લોકમાં મોક્ષનો દૃષ્ટા બને છે; રાગદ્વેષ રહિત જીવન વીતાવે છે. તે ઉપશાંત બની સમિતિ યુક્ત, જ્ઞાનાદિ ગુણ – યુક્ત થઇ, સદા યતનાવાન બને છે, પંડિતમરણને ઈચ્છતો એવો તે સંયમ – માર્ગમાં વિચરણ કરે છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Gujarati | 127 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] आगतिं गतिं परिण्णाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे ।
से ण छिज्जइ ण भिज्जइ न डज्झइ, न हम्मइ कंचणं सव्वलोए ॥ Translated Sutra: જીવોની ગતિ – આગતિ જાણીને જે સાધક રાગ – દ્વેષથી દૂર રહે છે તે સર્વ લોકમાં કોઈથી છેદાતા, ભેદાતા, બળાતા, મરાતા નથી રાગ – દ્વેષરહિત આત્મા દુઃખોથી મુક્ત થઇ જાય છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Gujarati | 131 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं ।
जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥
पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि।
पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि।
सच्चस्स आणाए ‘उवट्ठिए से’ मेहावी मारं तरति।
सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति। Translated Sutra: જે કર્મોને દૂર કરનાર છે તે મોક્ષને પ્રાપ્ત કરનાર છે અને જે મોક્ષને પ્રાપ્ત કરનાર છે તે કર્મોને દૂર કરનાર છે, એવું સમજીને હે પુરૂષ ! તું પોતાના આત્માનો નિગ્રહ કર, એમ કરવાથી તું દુઃખકર્મ) મુક્ત થઈશ. તું સત્યનું સેવન કર. કેમ કે સત્યની આજ્ઞામાં રહેનાર મેઘાવી સાધક સંસારને તરી જાય છે અને ધર્મનું યથાર્થ પાલન કરીને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Gujarati | 133 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘सहिए दुक्खमत्ताए’ पुट्ठो नो झंझाए।
पासंमि दविए लोयालोय-पवंचाओ मुच्चइ। Translated Sutra: જ્ઞાની – સાધક સાધના – માર્ગમાં આવતા દુઃખ કે પ્રલોભનોથી વ્યાકૂળ ન થાય. આવા આત્મદ્રષ્ટા પુરૂષ સંસાર અર્થાત્ લોકાલોકના સમસ્ત પ્રપંચોથી મુક્ત થાય છે – તેમ હું કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Gujarati | 138 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी।
जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी।
जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी।
जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी।
जे जम्म-दंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी।
जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च।
एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स।
आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि।
किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ? नत्थि। Translated Sutra: જે ક્રોધના અનર્થકારી સ્વરૂપને જાણે છે અને તેનો પરિત્યાગ કરે છે તે માનદર્શી છે અર્થાત્ માનને પણ જાણે છે અને ત્યાગ કરે છે, એ જ પ્રમાણે જે માનદર્શી છે તે માયાને જાણીને તજે છે, જે માયાદર્શી છે તે લોભદર્શી છે, જે લોભદર્શી છે તે રાગદર્શી છે, જે રાગદર્શી છે તે દ્વેષદર્શી છે, જે દ્વેષદર્શી છે તે મોહદર્શી છે, જે મોહદર્શી | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Gujarati | 142 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अहो य राओ य जयमाणे, वीरे सया आगयपण्णाणे।
पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: રાત – દિવસ મોક્ષમાર્ગમાં પ્રયત્નશીલ, તત્ત્વદર્શી, ધીર સાધક પ્રમાદીઓને ધર્મથી બહિર્મુખ જાણી, સ્વયં અપ્રમત્ત થઈ પરાક્રમ કરે. તેમ હું કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ धर्मप्रवादी परीक्षा | Gujarati | 144 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आघाइ नाणी इह माणवाणं संसारपडिवन्नाणं संबुज्झमाणाणं विण्णाणपत्ताणं।
अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता। अहासच्चमिणं- ति बेमि।
नानागमो मच्चुमुहस्स अत्थि, इच्छापणीया वंकाणिकेया ।
कालग्गहीआ णिचए णिविट्ठा, ‘पुढो-पुढो जाइं पकप्पयंति’ ॥ Translated Sutra: જ્ઞાની આ વિષયમાં સંસાર સ્થિત, સારી રીતે સમજનાર, હિત – અહિતની સમજ રાખનાર મનુષ્યને ઉપદેશ આપે છે – જેના વડે આર્ત્તધ્યાન પીડિત કે પ્રમાદી પણ ધર્માચરણ કરી શકે છે. આ યથાતથ્ય સત્ય છે. તેમ હું કહું છું. જીવોને મૃત્યુ નહીં આવે એવું તો નથી છતાં ઇચ્છાવશ થઈ, અસંયમમાં લીન બનેલ પ્રાણી કાળના મુખમાં પડ્યો એવો કર્મનાં સંગ્રહમાં | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-३ अनवद्यतप | Gujarati | 147 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उवेह एणं बहिया य लोयं, से सव्वलोगंसि जे केइ विण्णू ।
अणुवीइ पास निक्खित्तदंडा, जे केइ सत्ता पलियं चयंति ॥
नरा मुयच्चा धम्मविदु त्ति अंजू।
आरंभजं दुक्खमिणंति नच्चा, एवमाहु समत्तदंसिणो।
ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो। Translated Sutra: ધર્મથી વિમુખ લોકોની ઉપેક્ષા કરો. આમ કરનાર જ લોકમાં વિદ્વાનોમાં અગ્રણી છે. હે સાધક તું વિચાર કર અને જો! સત્ત્વશીલ સાધકો મન – વચન – કાયાથી દંડ અર્થાત્ હિંસાનો ત્યાગ કરે છે, તે જ કર્મનો ક્ષય કરે છે. જે શરીર પ્રત્યે અનાસક્ત છે, તે જ ધર્મને જાણી શકે છે. ધર્મને જાણનાર સરળ હોય છે. દુઃખ હિંસાથી ઉત્પન્ન થાય છે, એ જાણીને હિંસાનો | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-३ अनवद्यतप | Gujarati | 149 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इमं निरुद्धाउयं संपेहाए
दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं।
पुढो फासाइं च फासे।
लोयं च पास विप्फंदमाणं।
जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं, अनिदाणा ते वियाहिया।
तम्हा तिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि। Translated Sutra: આ મનુષ્યભવને અલ્પકાલીન જાણીને ક્રોધથી ઉત્પન્ન થનારા દુઃખો અને ભાવિમાં ઉત્પન્ન થનાર દુઃખોને જાણ. ક્રોધી જીવ ભિન્ન – ભિન્ન દુઃખોનો અનુભવ કરે છે. સંસારના દુઃખનો પ્રતિકાર કરવા માટે અહીં – તહીં ભાગદોડ કરતા જીવોને જો. જે પાપકર્મોથી નિવૃત્ત છે, તે અનિદાન અર્થાત્ કર્મોથી મુક્ત કહેવાય છે. તેથી હે અતિવિદ્વાન ! તું | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-४ संक्षेप वचन | Gujarati | 151 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नेत्तेहिं पलिछिन्नेहिं, आयाणसोय-गढिए बाले। अव्वोच्छिन्नबंधणे, अनभिक्कंतसंजोए।
तमंसि अविजाणओ आणाए लंभो नत्थि Translated Sutra: નેત્રાદિ ઇન્દ્રિયના વિષયનો ત્યાગ કરીને જે ફરી કર્મના આશ્રવના કારણોમાં આસક્ત થાય છે, તે અજ્ઞાની કર્મબંધનથી મુક્ત થઈ શકતો નથી. તે ધન – ધાન્યાદિ સંયોગથી મુક્ત થતો નથી. મોહરૂપી અંધકારમાં પડેલ આવા અજ્ઞાની જીવને ભગવંતની આજ્ઞાનો લાભ થતો નથી – તેમ હું કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-४ संक्षेप वचन | Gujarati | 152 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया?
से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए। सम्ममेयंति पासह।
जेण बंधं वहं घोरं, परितावं च दारुणं।
पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं।
‘कम्मुणा सफलं’ दट्ठुं, तओ णिज्जाइ वेयवी। Translated Sutra: જેને પૂર્વભવમાં ધર્મ – આરાધન કરેલ નથી, ભાવિમાં પણ તેવી યોગ્યતા નથી તેને વર્તમાનમાં તો ધર્મારાધન ક્યાંથી હોય ? જે ભોગ આદિથી નિવૃત્ત છે, તે જ પ્રજ્ઞાવાન, બુદ્ધ અને હિંસાથી વિરત છે. આ જ સમ્યક્ વ્યવહારછે એવું તું જો. સાધક જુએ કે હિંસાને કારણે બંધન, વધ, પરિતાપ આદિ ભયંકર દુઃખો સહન કરવા પડે છે. તેથી પાપના બાહ્ય – અભ્યંતર | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-१ एक चर | Gujarati | 154 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘आवंती केआवंति लोयंसि विप्परामुसंति, अट्ठाए अणट्ठाए वा’, एएसु चेव विप्परामुसंति।
गुरू से कामा।
तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे।
नेव से अंतो, नेव से दूरे। Translated Sutra: આ લોકમાં જે કોઈ પ્રાણી સપ્રયોજન કે નિષ્પ્રયોજન જીવહિંસા કરે છે, તેઓ તે જીવોમાં વિવિધ રૂપોમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેમને વિષયભોગ છોડવા કઠિન છે, તેથી તે મૃત્યુની પકડમાં રહે છે. મોક્ષસુખથી દૂર રહે છે. તેઓ વિષયસુખને ભોગવી શકતા નથી કે વિમુખ પણ થઈ શકતા નથી. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-१ एक चर | Gujarati | 158 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिज्जमाणे।
‘एत्थ फासे’ पुणो-पुणो
आवंती केआवंती लोयंसि आरंभजीवी, एएसु चेव आरंभजीवी।
एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं, ‘असरणे सरणं’ ति मन्नमाणे।
इहमेगेसिं एगचरिया भवति–से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे, आसवसक्की पलिउच्छन्ने, उट्ठियवायं पवयमाणे ‘मा से केइ अदक्खू’ अण्णाण-पमाय-दोसेणं, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणइ। अट्ठा पया माणव! कम्मकोविया जे अणुवरया, अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आवट्टं अणुपरियट्टंति। Translated Sutra: વિવિધ કામભોગોમાં આસક્ત જીવોને જુઓ. જે નરકાદિ યાતના સ્થાનમાં પકાવાઈ રહ્યા છે. લોકમાં જેટલા સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરનારા છે તે આ સંસારમાં દુઃખોને વારંવાર ભોગવે છે. સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરનારા અન્યતિર્થીક સાધુ કે શિથીલાચારી, ગૃહસ્થ સમાન જ દુઃખના ભાગી હોય છે. સંયમ અંગીકાર કરવા છતાં વિષયાભિલાષાથી પીડિત અજ્ઞાની જીવો અશરણને | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-२ विरत मुनि | Gujarati | 161 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संधिं समुप्पेहमाणस्स एगायतण-रयस्स इह विप्पमुक्कस्स, नत्थि मग्गे विरयस्स Translated Sutra: સૂત્ર ૧૬૦ મા કહેલા) એવા વિચારથી દેહના સ્વરૂપને જોનારા, આત્મગુણોમાં રમણ કરનારા, શરીરાદિમાં અનાસક્ત, ત્યાગી સાધકને સંસાર ભ્રમણ કરવું નહીં પડે – તેમ હું કહું છું. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-२ विरत मुनि | Gujarati | 163 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से ‘सुपडिबुद्धं सूवणीयं ति नच्चा’, पुरिसा! परमचक्खू! विपरक्कमा।
एतेसु चेव बंभचेरं ति बेमि।
से सुयं च मे अज्झत्थियं च मे, ‘बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव’।
एत्थ विरते अनगारे, दीहरायं तितिक्खए। पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिव्वए ॥
एयं मोणं सम्मं अणुवासिज्जासि। Translated Sutra: તે પરિગ્રહ છોડનારને જ સારી રીતે જ્ઞાનાદિ ગુણોની પ્રાપ્તી છે, તેમ જાણીને, હે માનવ! તમે સમ્યગ દૃષ્ટિને ધારણ કરીને સંયમ કે કર્મક્ષયમાં પરાક્રમ કરો. પરિગ્રહ થી વિરત થનાર અને સમ્યકદૃષ્ટિવાળા સાધકને જ પરમાર્થથી બ્રહ્મચર્ય છે. તેમ હું કહું છું. મેં સાંભળ્યું છે, અનુભવ્યું છે કે બંધનથી છૂટકારો પોતાના આત્માથી જ થાય | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Gujarati | 166 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयं नियाय मुनिणा पवेदितं–इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्वावररायं जयमाणे, सया सीलं संपेहाए, सुणिया भवे अकामे अज्झंज्झे।
इमेणं चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ? Translated Sutra: આ ઉત્થાન – પતન)ને કેવલજ્ઞાનથી જાણી તીર્થંકરે કહ્યું છે કે ભગવદ્ આજ્ઞાના ઈચ્છુક સાધક કોઈ સ્થાને રાગ – ભાવ કરે નહિ. રાત્રિના પહેલા અને છેલ્લા ભાગમાં સદા સંયમ માટે પ્રયત્નશીલ રહે. સદા શીલનું અનુશીલન કરે. સંયમ – પાલનના ફળને સાંભળીને કામરહિત અને માયા – લોભેચ્છા રહિત બને. વિષય – કષાય મુક્ત બને) | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Gujarati | 167 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘जुद्धारिहं खलु दुल्लहं’।
जहेत्थ कुसलेहि परिण्णा-विवेगे भासिए।
चुए हु बाले गब्भाइसु रज्जइ।
अस्सिं चेयं पव्वुच्चति, रूवंसि वा छणंसि वा।
से हु एगे संविद्धपहे मुनी, अन्नहा लोगमुवेहमाणे।
इति कम्मं परिण्णाय, सव्वसो से ण हिंसति। संजमति नोपगब्भति।
उवेहमानो पत्तेयं सायं।
वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए।
एगप्पमुहे विदिसप्पइण्णे, निव्विन्नचारी अरए पयासु। Translated Sutra: હે સાધક આ કર્મ – શરીર સાથે યુદ્ધ કર, બીજા સાથે લડતા શું મળશે ? ભાવયુદ્ધ કરવા માટે જે ઔદારિક શરીર આદિ મળેલ છે, તે વારંવારપ્રાપ્ત થવા દુર્લભ છે. તીર્થંકરોએ આત્મયુદ્ધના સાધનરૂપે સમ્યક્ જ્ઞાન અને સમ્યક્ આચારરૂપ વિવેક બતાવેલ છે. ધર્મથી ચ્યુત અજ્ઞાની જીવ ગર્ભાદિમાં ફસાય છે. આ જિન – શાસનમાં એવું કહ્યું છે – જે રૂપાદિમાં | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Gujarati | 168 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वसुभं सव्व-समन्नागय-पण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पाव कम्मं।
तं नो अन्नेसिं।
जं सम्मं ति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा, तं सम्मं ति पासहा ॥
न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं।
मुनी मोणं समायाए, धुणे कम्म-सरीरगं।
पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओहंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए। Translated Sutra: એવા સંયમવાન્ સાધુ સર્વ રીતે ઉત્તમ બોધને પ્રાપ્ત કરી ન કરવા યોગ્ય પાપકર્મ તરફ દૃષ્ટિ રાખતા નથી. જે સમ્યક્ત્વ છે અર્થાત્ સમ્યક્ આચરણવાળા છે તે મુનિધર્મ અર્થાત્ ભાવમુનિપણામાં છે અને જે ‘ભાવમુનિપણામાં છે તે સમ્યક્ આચરણવાળા છે’ એમ જાણો. શિથિલાચારી, સ્નેહમાં આસક્ત, વિષય આસ્વાદનમાં લોલુપ, કપટી, અને પ્રમાદી, તથા |