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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 82 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] नत्थि कालस्स नागमो।
सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविनो जीविउकामा।
सव्वेसिं जीवियं पियं।
तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजियाणं संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ– अप्पा वा बहुगा वा।
से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए।
तओ से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवइ।
तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, नस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डज्झइ।
इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ।
मुनिणा हु एयं पवेइयं।
अनोहंतरा एते, नोय ओहं तरित्तए ।
अतीरंगमा Translated Sutra: काल का अनागमन नहीं है, मृत्यु किसी क्षण आ सकती है। सब को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते हैं। दुःख से धबराते हैं। वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं। सब को जीवन प्रिय है। वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद और चतुष्पद का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनको कार्य में नियुक्त करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-३ मदनिषेध | Hindi | 83 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उद्देसो पासगस्स नत्थि।
बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुपरियट्टइ। Translated Sutra: जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम – सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में बार – बार भटकता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 84 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ से एगया रोग-समुप्पाया समुप्पज्जंति।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियया पुव्विं परिवयंति, सो वा ते नियगे पच्छा परिवएज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा।
जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं।
भोगामेव अणुसोयंति। इहमेगेसिं माणवाणं। Translated Sutra: तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ – संग्रही मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार के रोग – उत्पात उत्पन्न हो जाते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व – जन एकदा उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। हे पुरुष ! स्वजनादि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 85 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइ–अप्पा वा बहुगा वा।
से तत्थ गढिए चिट्ठति, भोयणाए।
ततो से एगया विपरिसिट्ठं संभूयं महोवगरणं भवति।
तं पि से एगया दायाया विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरति, रायानो वा से विलुंपंति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अगारडाहेण वा डज्झइ।
इति से परस्स अट्ठाए कूराइं कम्माइं बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ। Translated Sutra: यहाँ पर कुछ मनुष्यों को अपने, दूसरों के अथवा दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ – मात्रा हो जाती है। वह फिर उस अर्थ – मात्रा में आसक्त होता है। भोग के लिए उसकी रक्षा करता है। भोग के बाद बची हुई विपुल संपत्ति के कारण वह महान् वैभव वाला बन जाता है। फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है, जब दायाद हिस्सा बँटाते | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 86 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसं च छंदं च विगिंच धीरे।
तुमं चेव तं सल्लमाहट्टु।
जेण सिया तेण णोसिया।
इणमेव नावबुज्झंति, जेजना मोहपाउडा।
थीभि लोए पव्वहिए।
ते भो वयंति–एयाइं आयतणाइं।
से दुक्खाए मोहाए माराए नरगाए नरग-तिरिक्खाए।
उदाहु वीरे– अप्पमादो महामोहे।
अलं कुसलस्स पमाएणं।
संति-मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए।
नालं पास।
अलं ते एएहिं। Translated Sutra: हे धीर पुरुष ! तू आशा और स्वच्छन्दता त्याग दे। उस भोगेच्छा रूप शल्य का सृजन तूने स्वयं ही किया है। जिस भोगसामग्री से तुझे सुख होता है उससे सुख नहीं भी होता है। जो मनुष्य मोहकी सघनतासे आवृत हैं, ढ़ंके हैं, वे इस तथ्य को कि पौद्गलिक साधनों से कभी सुख मिलता है, कभी नहीं, वे क्षण – भंगुर हैं, तथा वे ही शल्य नहीं जानते यह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-४ भोगासक्ति | Hindi | 87 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एयं पास मुनि! महब्भयं।
नाइवाएज्ज कंचणं।
एस वीरे पसंसिए, जे न निविज्जति आदाणाए।
‘न मे देति’ न कुप्पिज्जा, थोवं लद्धुं न खिंसए।
‘पडिसेहिओ परिणमिज्जा’।
एयं मोणं समणुवासेज्जासि। Translated Sutra: हे मुनि ! यह देख, ये भोग महान भयरूप हैं। भोगों के लिए किसी प्राणी की हिंसा न कर। वह वीर प्रशंसनीय होता है, जो संयम से उद्विग्न नहीं होता। ‘यह मुझे भिक्षा नहीं देता’ ऐसा सोचकर कुपित नहीं होना चाहिए थोड़ी भिक्षा मिलने पर दाता की निंदा नहीं करनी चाहिए। गृहस्वामी दाता द्वारा प्रतिबंध करने पर शान्त भाव से वापस लौट | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 88 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जमिणं विरूवरूवेहिं ‘सत्थेहिं लोगस्स कम्म-समारंभा’ कज्जंति, तं जहा–अप्पनो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायरासाए।
सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए। Translated Sutra: असंयमी पुरुष अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा लोक के लिए कर्म समारंभ करते हैं। जैसे – अपने लिए, पुत्र, पुत्री, पुत्र – वधू, ज्ञातिजन, धाय, राजा, दास – दासी, कर्मचारी, कर्मचारिणी, पाहुने आदि के लिए तथा विविध लोगों को देने के लिए एवं सायंकालीन तथा प्रातःकालीन भोजन के लिए। इस प्रकार वे कुछ मनुष्यों के भोजन के लिए सन्निधि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 89 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] समुट्ठिए अनगारे आरिए आरियपण्णे आरियदंसी ‘अयं संधीति अदक्खु’।
से नाइए, नाइआवए, न समणुजाणइ।
सव्वामगंधं परिण्णाय, निरामगंधो परिव्वए। Translated Sutra: संयम – साधना में तत्पर हुआ आर्य, आर्यप्रज्ञ और आर्यदर्शी अनगार प्रत्येक क्रिया उचित समय पर ही करता है। वह ‘यह शिक्षा का समय – संधि है’ यह देखकर (भिक्षा के लिए जाए)। वह सदोष आहार को स्वयं ग्रहण न करे, न दूसरों से ग्रहण करवाए तथा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन नहीं करे। वह (अनगार) सब प्रकार के आमगंध (आधाकर्मादि दोषयुक्त | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 90 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अदिस्समाणे कय-विक्कएसु। से न किणे, न किनावए, किणंतं न समणुजाणइ।
से भिक्खू कालण्णे बलण्णे मायण्णे खेयण्णे खणयण्णे विणयण्णे समयण्णे भावण्णे, परिग्गहं अममायमाणे, कालेणुट्ठाइ, अपडिण्णे। Translated Sutra: वह वस्तु के क्रय – विक्रय में संलग्न न हो। न स्वयं क्रय करे, न दूसरों से क्रय करवाए और न क्रय करने वाले का अनुमोदन करे। वह भिक्षु कालज्ञ है, बलज्ञ है, मात्रज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है, क्षणज्ञ है, विनयज्ञ है, समयज्ञ है, भावज्ञ है। परिग्रह पर ममत्व नहीं रखने वाला, उचित समय पर उचित कार्य करने वाला अप्रतिज्ञ है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 91 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुहओ छेत्ता नियाइ।
वत्थं पडिग्गहं, कंबलं पायपुछणं, उग्गहं च कडासणं। एतेसु चेव जाएज्जा। Translated Sutra: वह राग और द्वेष – दोनों का छेदन कर नियम तथा अनासक्तिपूर्वक जीवन यात्रा करता है। वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन, अवग्रह और कटासन आदि (जो गृहस्थ के लिए निर्मित हों) उनकी याचना करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 92 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लद्धे आहारे अनगारे मायं जाणेज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं।
लाभो त्ति न मज्जेज्जा।
अलाभो त्ति न सोयए।
बहुं पि लद्धुं न णिहे।
परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा। Translated Sutra: आहार प्राप्त होने पर, आगम के अनुसार, अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए। ईच्छित आहार आदि प्राप्त होने पर उसका मद नहीं करे। यदि प्राप्त न हो तो शोक न करे। यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो, तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 93 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘अन्नहा णं पासए परिहरेज्जा’।
एस मग्गे आरिएहिं पवेइए।
जहेत्थ कुसले णोवलिंपिज्जासि Translated Sutra: जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं, उस प्रकार न देखे – अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन करे। यह मार्ग आर्यो ने प्रतिपादित किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो। ऐसा मैं कहता हूँ | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 94 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] कामा दुरतिक्कमा।
जीवियं दुप्पडिवूहणं।
कामकामी खलु अयं पुरिसे।
से सोयति जूरति तिप्पति पिड्डति परितप्पति। Translated Sutra: ये काम दुर्लघ्य है। जीवन बढ़ाया नहीं जा सकता, यह पुरुष कामभोग की कामना रखता है (किन्तु यह परितृप्त नहीं होती, इसलिए) वह शोक करता है फिर वह शरीर से सूख जाता है, आँसू बहाता है, पीड़ा और परिताप से दुःखी होता रहता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 95 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ।
गढिए अणुपरियट्टमाणे।
संधिं विदित्ता इह मच्चिएहिं।
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।
अंतो अंतो पूतिदेहंतराणि, पासति पुढोवि सवंताइं।
पंडिए पडिलेहाए। Translated Sutra: वह आयतचक्षु – दीर्घदर्शी लोकदर्शी होता है। यह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्व भाग को जानता है, तीरछे भाग को जानता है। (कामभोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में अनुपरिवर्तन करता रहता है। यहाँ (संसार में) मनुष्यों के, (मरणधर्माशरीर की) संधि को जानकर (विरक्त हो)। वह वीर प्रशंसा के योग्य है जो (कामभोग में) बद्ध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 96 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी।
मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावातए।
कासकंसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई, कडेण मूढे पुनो तं करेइ लोभं।
वेरं वड्ढेति अप्पणो।
जमिणं परिकहिज्जइ, इमस्स चेव पडिवूहणयाए।
अमरायइ महासड्ढी।
अट्ठमेतं पेहाए।
अपरिण्णाए कंदति। Translated Sutra: वह मतिमान् साधक (उक्त विषय को) जानकर तथा त्यागकर लार को न चाटे। अपने को तिर्यक्मार्ग में, (कामभोग के बीच में) न फँसाए। यह पुरुष सोचता है – मैंने यह कार्य किया, यह कार्य करूँगा (इस प्रकार) वह दूसरों को ठगता है, माया – कपट रचता है, और फिर अपने रचे मायाजाल में स्वयं फँसकर मूढ़ बन जाता है। वह मूढ़भाव से ग्रस्त फिर लोभ करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Hindi | 97 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘से तं जाणह जमहं बेमि’।
‘तेइच्छं पंडिते’ पवयमाणे।
से हंता ‘छेत्ता भेत्ता’ ‘लुंपइत्ता विलुंपइत्ता’ उद्दवइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जस्स वि य णं करेइ।
अलं बालस्स संगेणं।
जे वा से कारेइ बाले।
‘न एवं’ अणगारस्स जायति। Translated Sutra: तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँ। अपने को चिकित्सा – पंडित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा में प्रवृत्त होते हैं। वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विलुम्पन और प्राण – वध करता है। ‘जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूँगा,’ यह मानता हुआ (जीव – वध करता है)। जिसकी चिकित्सा करता है (वह भी जीव – वध में सहभागी होता है)। (इस | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 98 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए।
तम्हा पावं कम्मं, ने व कुज्जा न कारवे। Translated Sutra: वह उसको सम्यक् प्रकार से जानकर संयम साधना से समुद्यत होता है। इसलिए वह स्वयं पापकर्म न करे, दूसरों से न करवाए (अनुमोदन भी न करे)। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 99 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सिया से एगयरं विप्परामुसइ, छसु अन्नयरंसि कप्पति।
सुहट्ठी लालप्पमाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति।
सएण विप्पमाएण, पुढो वयं पकुव्वति।
जंसिमे पाणा पव्वहिया। पडिलेहाए णोणिकरणाए।
एस परिण्णा पवुच्चइ।
कम्मोवसंती। Translated Sutra: कदाचित् किसी एक जीवकाय का समारंभ करता है, तो वह छहों जीव – कायों में (सभी का) समारंभ कर सकता है। वह सुख का अभिलाषी, बार – बार सुख की ईच्छा करता है, (किन्तु) स्व – कृत कर्मों के कारण, मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में भ्रमण करता है, जहाँ पर कि | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 100 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे ममाइय-मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं।
से हु दिट्ठपहे मुनी, जस्स नत्थि ममाइयं।
तं परिण्णाय मेहावी।
विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, ‘से मतिमं’ परक्कमेज्जासि Translated Sutra: जो ममत्व – बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग करता है। वही द्रष्ट – पथ मुनि है, जीसने ममत्व का त्याग कर दिया है। यह जानकर मेधावी लोकस्वरूप को जाने। लोक – संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे। वास्तव में उसे ही मतिमान् कहा गया है – ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 103 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पंतं लूहं सेवंति, वीरा समत्तदंसिणो।
एस ओघंतरे मुनी, तिण्णे मुत्ते विरत्ते, वियाहिते Translated Sutra: वे समत्वदर्शी वीर साधक रूखे – सूखे का समभाव पूर्वक सेवन करते हैं। वह मुनि, जन्म – मरणरूप संसार प्रवाह को तैर चूका है, वह वास्तव में मुक्त, विरत कहा जाता है। ऐसा मैं कहता हूँ। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 104 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] दुव्वसु मुनी अणाणाए। तुच्छए गिलाइ वत्तए। एस वीरे पसंसिए।
अच्चेइ लोयसंजोयं। एस णाए पवुच्चइ। Translated Sutra: जो पुरुष वीतराग की आज्ञा का पालन नहीं करता वह संयम – धन से रहित है। वह धर्म का कथन करने में ग्लानि का अनुभव करता है, (क्योंकि) वह चारित्र की द्रष्टि से तुच्छ जो है। वह वीर पुरुष (जो वीतराग की आज्ञा के अनुसार चलता है) सर्वत्र प्रशंसा प्राप्त करता है और लोक – संयोग से दूर हट जाता है, मुक्त हो जाता है। यही न्याय्य (तीर्थंकरों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 105 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं दुक्खं पवेदितं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति।
इति कम्म परिण्णाय सव्वसो।
जे अनन्नदंसी, से अणण्णारामे। जे अणण्णारामे, से अनन्नदंसी॥
जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ॥ Translated Sutra: यहाँ (संसार में) मनुष्यों के जो दुःख बताए हैं, कुशल पुरुष उस दुःख को परिज्ञा – विवेक बताते हैं। इस प्रकार कर्मों को जानकर सर्व प्रकार से (निवृत्ति करे)। जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है। जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है। (आत्मदर्शी) साधक जैसे पुण्यवान व्यक्ति को धर्म – उपदेश करता | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 106 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अवि य हणे अनादियमाणे। एत्थंपि जाण, सेयंति नत्थि।
के यं पुरिसे? कं च नए?
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिण्णचारी।
न लिप्पई छणपएण वीरे।
से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमन्नेसि।
कुसले पुण नोबद्धे, नोमुक्के। Translated Sutra: कभी अनादर होने पर वह (श्रोता) उसको (धर्मकथी को) मारने भी लग जाता है। अतः यहाँ यह भी जाने धर्मकथा करना श्रेय नहीं है। पहले धर्मोपदेशक को यह जान लेना चाहिए की यह पुरुष कौन है ? किस देवता को मानता है ? वह वीर प्रशंसा के योग्य है, जो बद्ध मनुष्यों को मुक्त करता है। वह ऊंची, नीची और तीरछी दिशाओं में, सब प्रकार से समग्र परिज्ञा/विवेकज्ञान | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 107 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से जं च आरभे, जं च नारभे, अणारद्धं च नारभे।
छणं छणं परिण्णाय, लोगसण्णं च सव्वसो। Translated Sutra: उन कुशल साधकों ने जिसका आचरण किया है और जिसका आचरण नहीं किया है (यह जानकर श्रमण) उनके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। हिंसा को जानकर उसका त्याग कर दे। लोक – संज्ञा को भी सर्व प्रकार से जाने और छोड़ दे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Hindi | 108 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] उद्देसो पासगस्स नत्थि।
बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्टं अणुपरियट्टइ। Translated Sutra: द्रष्टा के लिए कोई उद्देश (अथवा उपदेश) नहीं है। बाल बार – बार विषयों में स्नेह करता है। काम – ईच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर (सेवन करता है) इसीलिए वह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है। ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन – २ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 110 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं।
समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए।
जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति... Translated Sutra: इस बात को जान लो कि लोक में अज्ञान अहित के लिए होता है। लोक में इस आचार को जानकर (संयम में बाधक) जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत रहे। जिस पुरुष ने शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श को सम्यक् प्रकार से परिज्ञात किया है – (जो उनमें रागद्वेष न करता हो)। वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है। जो पुरुष | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 112 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सीओसिनच्चाई से निग्गंथे अरइ-रइ-सहे फरुसियं णोवेदेति।
जागर-वेरोवरए वीरे।
एवं दुक्खा पमोक्खसि।
जरामच्चुवसोवणीए नरे, सययं मूढे धम्मं नाभिजाणति। Translated Sutra: वह निर्ग्रन्थ शीत और उष्ण (सुख और दुःख) का त्यागी (इनकी लालसा से) मुक्त होता है तथा वह अरति और रति को सहन करता है तथा स्पर्शजन्य सुख – दुःख का वेदन नहीं करता। जागृत और वैर से उपरत वीर ! तू इस प्रकार दुःखों से मुक्ति पा जाएगा। बुढ़ापे और मृत्यु के वश में पड़ा हुआ मनुष्य सतत मूढ़ बना रहता है। वह धर्म को नहीं जान पाता। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 113 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] पासिय आउरे पाणे, अप्पमत्तो परिव्वए।
मंता एयं मइमं! पास।
आरंभजं दुक्खमिणं ति नच्चा।
माई पमाई पुनरेइ गब्भं।
उवेहमानो सद्द-रूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चति।
अप्पमत्तो कामेहिं, उवरतो पावकम्मेहिं, वीरे आयगुत्ते ‘जे खेयण्णे’।
जे पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे, से पज्जवजाय-सत्थस्स खेयण्णे।
अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ।
कम्मुणा उवाही जायइ। कम्मं च पडिलेहाए। Translated Sutra: (सुप्त) मनुष्यों को दुःखों से आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे। हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन (दुखियों) को देख। यह दुःख आरम्भज है, यह जानकर (तू निरारम्भ होकर अप्रमत्त भाव से आत्महित में प्रवृत्त रह)। मया और प्रमाद के वश हुआ मनुष्य बार – बार जन्म लेता है। शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है, वह | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-१ भावसुप्त | Hindi | 114 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘कम्ममूलं च’ जं छणं।
पडिलेहिय सव्वं समायाय।
दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे।
तं परिण्णाय मेहावी।
विदित्ता लोगं, वंता लोगसण्णं से मइमं परक्कमेज्जासि। Translated Sutra: कर्म का मूल जो क्षण – हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे)। इन सबका सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेष) अन्तों से अद्रश्य होकर रहे। मेधावी साधक उसे (राग – द्वेषादि को) ज्ञात करके (ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े।) वह मतिमान् साधक (रागादि से मूढ़) लोक को जानकर | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 115 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] जातिं च वुड्ढिं च इहज्ज! पासे। भूतेहिं जाणे पडिलेह सातं।
तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा, समत्तदंसी न करेति पावं॥ Translated Sutra: हे आर्य ! तू इस संसार में जन्म और बुद्धि को देख। तू प्राणियों को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर। इससे त्रैविद्य या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है)। समत्वदर्शी पाप नहीं करता। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 116 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] उम्मुंच पासं इह मच्चिएहिं। आरंभजीवी ‘उ भयाणुपस्सी’।
कामेसु गिद्धा निचयं करेंति, संसिच्चमाणा पुणरेंति गब्भं॥ Translated Sutra: इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश है, उसे तोड़ ड़ाल; क्योंकि ऐसे लोग हिंसादि पापरूप आरंभ करके जीते हैं और आरंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक में शारीरिक, मानसिक कामभोगों को ही देखते रहते हैं, अथवा आरंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन करते हैं। ऐसे कामभोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं। (कर्मों की | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 117 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मन्नति ।
अलं बालस्स संगेण, वेरं वड्ढेति अप्पनो ॥ Translated Sutra: वह (काम – भोगासक्त मनुष्य) हास्य – विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है। बाल – अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 118 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] तम्हा तिविज्जो परमंति नच्चा, आयंकदंसी न करेति पावं।
‘अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे’। पलिच्छिंदिया णं निक्कम्मदंसी॥ Translated Sutra: इसलिए अति विद्वान् परम – मोक्ष पद को जानकर जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप नहीं करता। हे धीर ! तू (इस आतंक – दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी हो जाता है। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 119 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एस मरणा पमुच्चइ।
से हु दिट्ठपहे मुनी।
लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया जए कालकंखी परिव्वए।
बहुं च खलु पावकम्मं पगडं। Translated Sutra: वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है। वह मुनि भय को देख चूका है। वह लोक में परम (मोक्ष) को देखता है। वह राग – द्वेष रहित शुद्ध जीवन जीता है। वह उपशान्त, समित, (ज्ञान आदि से) सहित होता। (अत एव) सदा संयत होकर, मरण की आकांक्षा करता हुआ विचरण करता है। (इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 120 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सच्चंसि धितिं कुव्वह।
एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावकम्मं झोसेति। Translated Sutra: (उन कर्मों को नष्ट करने हेतु) तू सत्य में धृति कर। इस में स्थिर रहने वाला मेधावी समस्त पापकर्मों का शोषण कर डालता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 122 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसेवित्ता एतमट्ठं, इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवए।
निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं नच्चा। अनन्नं चर माहणे!
से न छणे न छनावए, छणंतं णाणुजाणइ।
निव्विंद नंदिं अरते पयासु।
अणोमदंसी निसन्ने पावेहिं कम्मेहिं। Translated Sutra: इस प्रकार कईं व्यक्ति इस अर्थ का आसेवन करके संयम – साधना में संलग्न हो जाते हैं। इसलिए वे फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते। हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू विषयाभिलाषा मत कर)। केवल मनुष्यों के ही, जन्म – मरण नहीं, देवों के भी उपपात और च्यवन निश्चित हैं, यह जानकर (विषय – सुखों में आसक्त मत हो)। हे माहन ! तू अनन्य | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 123 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महंतं ।
तम्हा हि वीरे विरते वहाओ, छिंदेज्ज सोयं लहुभूयगामी ॥ Translated Sutra: वीर पुरुष कषाय के आदि अंग – क्रोध और मान को मारे, लोभ को महान् नरक के रूप में देखे। इसलिए लघुबूत बनने का अभिलाषी, वीर हिंसा से विरत होकर स्रोतों को छिन्न – भिन्न कर डाले। | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Hindi | 124 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] गंथं परिण्णाय इहज्जेव वीरे, सोयं परिण्णाय चरेज्ज दंते ।
उम्मग्ग लद्धुं इह माणवेहिं, नो पाणिणं पाणे समारभेज्जासि ॥ Translated Sutra: हे वीर ! इस लोकमें ग्रन्थ (परिग्रह) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से आज ही अविलम्ब छोड़ दे, इसी प्रकार (संसार के) स्रोत भी जानकर दान्त बनकर संयममें विचरण कर। यह जानकर की यहीं (मनुष्य जन्ममें) मनुष्यों द्वारा उन्मज्जन या कर्म – उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है, मुनि प्राणों का समारम्भ न करे। ऐसा मैं | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 125 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] संधिं लोगस्स जाणित्ता। आयओ बहिया पास।
तम्हा न हंता न विघायए।
जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं, किं तत्थ मुनी कारणं सिया? Translated Sutra: साधक (धर्मानुष्ठान की अपूर्व) सन्धि समझकर प्रमाद करना उचित नहीं है। अपनी आत्मा के समान बाह्य – जगत को देख ! (सभी जीवों को मेरे समान ही सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है) यह समझकर मुनि जीवों का हनन न करे और न दूसरों से घात कराए। जो परस्पर एक – दूसरे की आशंका से, भय से, या दूसरे के सामने लज्जा के कारण पाप कर्म नहीं करता, तो | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 126 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए।
अनन्नपरमं नाणी, नोपमाए कयाइ वि ॥
आयगुत्ते सया वीरे, जायामायाए जावए ।
विरागं रूवेहिं गच्छेज्जा, महया खुड्डएहि वा॥ Translated Sutra: इस स्थिति में (मुनि) समता की द्रष्टि से पर्यालोचन करके आत्मा को प्रसाद रखे। ज्ञानी मुनि अनन्य परम के प्रति कदापि प्रमाद न करे। वह साधक सदा आत्मगुप्त और वीर रहे, वह अपनी संयम – यात्रा का निर्वाह परिमित आहार से करे। वह साधक छोटे या बड़े रूपों – (द्रश्यमान पदार्थों) के प्रति विरति धारण करे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 128 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] ‘अवरेण पुव्वं न सरंति एगे, किमस्सतीतं? किं वागमिस्सं?
भासंति एगे इह माणव उ, जमस्सतीतं आगमिस्सं ॥ Translated Sutra: कुछ (मूढ़मति) पुरुष भविष्यकाल के साथ पूर्वकाल का स्मरण नहीं करते। वे चिन्ता नहीं करते की इसका अतीत क्या था, भविष्य क्या होगा ? कुछ (मिथ्याज्ञानी) मानव यों कह देते हैं कि जो इसका अतीत था, वही भविष्य होगा। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 129 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नातीतमट्ठं न य आगमिस्सं, अट्ठं नियच्छंति तहागया उ ।
विधूत-कप्पे एयाणुपस्सी, निज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥ Translated Sutra: किन्तु तथागत (सर्वज्ञ) न अतीत के अर्थ का स्मरण करते हैं और न ही भविष्य के अर्थ का चिन्तन करते हैं। (जिसने कर्मों को विविध प्रकार से धूत कर दिया है, ऐसे) विधूत समान कल्पवाला महर्षि इन्हीं के दर्शन का अनुगामी होता है, अथवा वह क्षपक महर्षि वर्तमान का अनुदर्शी हो (पूर्व संचित) कर्मों का शोषण करके क्षीण कर देता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 130 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] का अरई? के आनंदे? एत्थंपि अग्गहे चरे। सव्वं हासं परिच्चज्ज, आलीण-गुतो परिव्वए ॥
पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि? Translated Sutra: उस (धूत – कल्प)योगी के लिए भला क्या अरति है और क्या आनन्द है? वह इस विषय में बिलकुल ग्रहण रहित होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य आदि त्याग करके इन्द्रियनिग्रह तथा मन – वचन – काया को तीन गुप्तियों से गुप्त करते हुए विचरण करे। हे पुरुष ! तू ही मेरा मित्र है, फिर बाहर अपने से भिन्न मित्र क्यों ढूँढ़ रहा है ? | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-३ अक्रिया | Hindi | 131 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जं जाणेज्जा उच्चालइयं, तं जाणेज्जा दूरालइयं ।
जं जाणेज्जा दूरालइयं, तं जाणेज्जा उच्चालइयं ॥
पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि।
पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि।
सच्चस्स आणाए ‘उवट्ठिए से’ मेहावी मारं तरति।
सहिए धम्ममादाय, सेयं समणुपस्सति। Translated Sutra: जिसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझते हो, उसका घर अत्यन्त दूर समझो, जिसे अत्यन्त दूर समझते हो उसे तुम उच्च भूमिका पर स्थित समझो। हे पुरुष ! अपना ही निग्रह कर। इसी विधि से तू दुःख से मुक्ति प्राप्त कर सकेगा। हे पुरुष ! तू सत्य को ही भलीभाँति समझ ! सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहने वाला वह मेधावी मार (संसार) को तर जाता है। सत्य | |||||||||
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श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Hindi | 134 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से वंता कोहं च, माणं च, मायं च, लोभं च।
एयं पासगस्स दंसणं ‘उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स’।
आयाणं निसिद्धा? सगडब्भि। Translated Sutra: वह (साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन कर देता है। यह दर्शन हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ – सर्वदर्शी का है। जो कर्मों के आदान का निरोध करता है, वही स्व – कृत का भेत्ता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Hindi | 136 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं।
‘जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहुं नामे, से एगं नामे’।
दुक्खं लोयस्स जाणित्ता।
वंता लोगस्स संजोगं, जंति वीरा महाजाणं ।
परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं ॥ Translated Sutra: प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है। साधक लोक के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे) वीर साधक लोक के संयोग का परित्याग कर महायान को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Hindi | 137 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ।
सड्ढी आणाए मेहावी।
लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं।
अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं। Translated Sutra: एक को पृथक् करने वाला, अन्य (कर्मों) को भी पृथक् कर देता है, अन्य को पृथक् करने वाला, एक को भी पृथक् कर देता है। (वीतराग की) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। साधक आज्ञा से लोक को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय हो जाता है। शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Hindi | 138 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी।
जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी।
जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी।
जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी।
जे जम्म-दंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी।
जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च।
एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स।
आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि।
किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ? नत्थि। Translated Sutra: जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है, जो मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है, जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वेषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Hindi | 139 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति–सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा।
एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए।
तं जहा–उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवट्ठिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा। संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा।
तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सिं चेयं पवुच्चइ। Translated Sutra: मैं कहता हूँ – जो अर्हन्त भगवान अतीत में हुए हैं, जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे – वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं – समस्त प्राणियों, सर्व भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का हनन नहीं करना चाहिए, बलात् उन्हें शासित नहीं करना चाहिए, न उन्हें दास | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Hindi | 140 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं आइइत्तु न णिहे न निक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा।
दिट्ठेहिं निव्वेयं गच्छेज्जा। नो लोगस्सेसणं चरे। Translated Sutra: साधक उस (अर्हत् भाषित – धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जानकर (उसका आचरण करे)। (इष्ट – अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। वह लोकैषणा में न भटके। |