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Global Search for JAIN Aagam & ScripturesScripture Name | Translated Name | Mool Language | Chapter | Section | Translation | Sutra # | Type | Category | Action |
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Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 480 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] इच्चेयाइं आयतणाइं उवाइकम्म, अह भिक्खू जाणेज्जा चउहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए।
तत्थ खलु इमा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय-उद्दिसिय वत्थं जाएज्जा, तं जहा–जंगियं वा, भंगियं वा, साणयं वा, पोत्तयं वा, खोमियं वा, तूलकडं वा–तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाएज्जा, परो वा से देज्जा–फासुयं एसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते पडिगाहेज्जा–पढमा पडिमा।
अहावरा दोच्चा पडिमा–से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पेहाए वत्थं जाएज्जा, तं जहा–गाहावइं वा, गाहावइ-भारियं वा, गाहावइ-भगिनिं वा, गाहावइ-पुत्तं वा, गाहावइ-धूयं वा, सुण्हं वा, धाइं वा, दासं वा, दासिं वा, कम्मकरं वा, कम्मकरिं वा। से पुव्वामेव Translated Sutra: इन दोषों के आयतनों को छोड़कर चार प्रतिमाओं से वस्त्रैषणा करनी चाहिए। पहली प्रतिमा – वह साधु या साध्वी मन में पहले संकल्प किये हुए वस्त्र की याचना करे, जैसे कि – जांगमिक, भांगिक, सानज, पोत्रक, क्षौमिक या तूलनिर्मित वस्त्र, उस प्रकार के वस्त्र की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ स्वयं दे तो प्रासुक और एषणीय होने पर ग्रहण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-१ वस्त्र ग्रहण विधि | Hindi | 481 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–सअंडं सपाणं सबीयं सहरियं सउसं सउदय सउत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, तहप्पगारं वत्थं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं अप्पोसं अप्पुदयं अप्पुत्तिंग-पणग-दग-मट्टिय-मक्कडा संताणगं, अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं, रोइज्जंतं न रुच्चइ, तहप्पगारं वत्थं–अफासुयं अनेसणिज्जं ति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा–अप्पंडं अप्पपाणं अप्पबीयं अप्पहरियं Translated Sutra: साधु – साध्वी यदि ऐसे वस्त्र को जाने जो कि अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हैं तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनैषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। साधु या साध्वी यदि जाने के यह वस्त्र अंडों से यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ है, अस्थिर है, या जीर्ण | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-५ वस्त्रैषणा |
उद्देशक-२ वस्त्र धारण विधि | Hindi | 484 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से एगइओ एयप्पगारं निग्घोसं सोच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि ‘मुहुत्तगं-मुहुत्तगं’ जाइत्ता एगाहेण वा, दुयाहेण वा, तियाहेण वा, चउयाहेण वा, पंचाहेण वा विप्पवसिय-विप्पवसिय उवागच्छंति, तहप्पगाराणि वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति, नो अन्नमन्नस्स अणुवयंति, नो पामिच्चं करेंति, नो वत्थेण वत्थपरिणामं करेंति, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेंति– ‘आउसंतो! समणा! अभिकंखसि वत्थं धारेत्तए वा, परिहरेत्तए वा? ’थिरं वा णं संतं नो पलिच्छिंदिय-पलिच्छिंदिय परिट्ठवेंति। तहप्पगाराणि वत्थाणि ससंधियाणि तस्स चेव निसिरेंति, नो णं सातिज्जंति, ‘से हंता’ अहमवि मुहुत्तगं Translated Sutra: कोई साधु मुहूर्त्त आदि नियतकाल के लिए किसी दूसरे साधु से प्रातिहारिक वस्त्र की याचना करता है और फिर किसी दूसरे ग्राम आदि में एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन अथवा पाँच दिन तक निवास करके वापस आता है। इस बीच यह वस्त्र उपहत हो जाता है। लौटाने पर वस्त्र का स्वामी उसे वापिस लेना स्वीकार नहीं करे, लेकर दूसरे साधु को | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-७ अवग्रह प्रतिमा |
उद्देशक-२ | Hindi | 496 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] सुयं मे आउसं! ते णं भगवया एवमक्खायं–इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे ओग्गहे पण्णत्ते, तंजहा–देविंदोग्गहे, रायोग्गहे, गाहावइ-ओग्गहे, सागारिय-ओग्गहे, साहम्मिय-ओग्गहे।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जएज्जासि। Translated Sutra: हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान से इस प्रकार कहते हुए सूना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवंतों ने पाँच प्रकार का अवग्रह बताया है, देवेन्द्र – अवग्रह, राजावग्रह, गृहपति – अवग्रह, सागारिक – अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। यही उस भिक्षु या भिक्षुणी का समग्र आचार है, जिसके लिए वह अपने सभी ज्ञानादि आचारों एवं समितियों | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१० [३] उच्चार प्रश्नवण विषयक |
Hindi | 500 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–इह खलु गाहावई वा, गाहावइ-पुत्ता वा कंदाणि वा, मूलाणि वा, [तयाणि वा?], पत्ताणि वा, पुप्फाणि वा, फलाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा अंतातो वा बाहिं णीहरंति, बहियाओ वा अंतो साहरंति, अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–खंधंसि वा, पीढंसि वा, मंचंसि वा, मालंसि वा, अट्टंसि वा, पासायंसि वा, अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा–अनंतरहियाए पुढवीए, ससिणिद्धाए पुढवीए, ससरक्खाए Translated Sutra: साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जान कि गृहपति या उसके पुत्र कन्द, मूल यावत् हरी जिसके अंदर से बाहर ले जा रहे हैं, या बाहर से भीतर ले जा रहे हैं, अथवा उस प्रकार की किन्हीं सचित्त वस्तुओं को इधर – उधर कर रहे हैं, तो वहाँ साधु – साध्वी मल – मूत्र विसर्जन न करे। ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि स्कन्ध पर, चौकी पर, मचान पर, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-११ [४] शब्द विषयक |
Hindi | 503 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, उप्पलाणि वा, पल्ललाणि वा, उज्झराणि वा, निज्झराणि वा, वावीणि वा, पोक्खराणि वा, दीहियाणि वा, गुंजालियाणि वा, सराणि वा, सागराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरसरपंतियाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं सुणेति, तं जहा–कच्छाणि वा, णूमाणि वा, गहणाणि वा, वनानि वा, वनदुग्गाणि वा, पव्वयाणि वा, पव्वयदुग्गाणि वा, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं सद्दाइं कण्णसोय-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से Translated Sutra: वह साधु या साध्वी कईं प्रकार के शब्द श्रवण करते हैं, जैसे कि – खेत की क्यारियों में तथा खाईयों में होने वाले शब्द यावत् सरोवरों में, समुद्रों में, सरोवर की पंक्तियों या सरोवर के बाद सरोवर की पंक्तियों के शब्द, अन्य इसी प्रकार के विविध शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के लिए जाने के लिए मन में संकल्प न करे। साधु | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-२ अध्ययन-१२ [५] रुप विषयक |
Hindi | 505 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं रूवाइं पासइ, तं जहा–गंथिमाणि वा, वेढिमाणि वा, पूरिमाणि वा, संघाइमाणि वा, कट्ठकम्माणि वा, पोत्थकम्माणि वा, चित्तकम्माणि वा, मणिकम्माणि वा, दंतकम्माणि वा, पत्तच्छेज्जकम्माणि वा, ‘विहाणि वा, वेहिमाणि वा’, अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं विरूवरूवाइं [रूवाइं?] चक्खुदंसण-पडियाए नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं रूवाइं पासाइ, तं जहा–वप्पाणि वा, फलिहाणि वा, उप्पलाणि वा, पल्ललाणि वा, उज्झराणि वा, निज्झराणि वा, वावीणि वा, पोक्खराणि वा, दीहियाणि वा, गुंजालियाणि वा, सराणि वा, सागराणि वा, सरपंतियाणि वा, सरसरपंतियाणि वा, Translated Sutra: साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं, जैसे – गूँथे हुए पुष्पों से निष्पन्न, वस्त्रादि से वेष्टित या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से आकृति बन जाती हो, उन्हें, संघात से निर्मित चोलका – दिकों, काष्ठ कर्म से निर्मित, पुस्तकर्म से निर्मित, चित्रकर्म से निर्मित, विविध मणिकर्म से निर्मित, | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 509 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे यावि होत्था – १. हत्थुत्तराहिं चुए चइत्ता गब्भं वक्कंते, २. हत्थुत्तराहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए, ३. हत्थुत्तराहिं जाए, ४. हत्थुत्तराहिं सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, ५. हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुण्णे अव्वाघाए निरावरणे अणंते अनुत्तरे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे।
साइणा भगवं परिनिव्वुए। Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के पाँच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हुए। भगवान का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में देवलोक से च्यवन हुआ, च्यवकर वे गर्भ में उत्पन्न हुए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में गर्भ से गर्भान्तर में संहरण किये गए। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भगवान का जन्म हुआ। उत्तराफाल्गुनी | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 510 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए-सुसमसुसमाए समाए वीइक्कंताए, सुसमाए समाए वीतिक्कंताए, सुसमदुसमाए समाए वीतिक्कंताए, दुसमसुसमाए समाए बहु वीतिक्कंताए–पण्णहत्तरीए वासेहिं, मासेहिं य अद्धणवमेहिं सेसेहिं, जे से गिम्हाणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे–आसाढसुद्धे, तस्सणं आसाढसुद्धस्स छट्ठीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं, महावि-जय-सिद्धत्थ-पुप्फुत्तर-पवर-पुंडरीय-दिसासोवत्थिय-वद्धमाणाओ महाविमाणाओ वीसं सागरोवमाइं आउयं पालइत्ता आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता इह खलु जबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणड्ढभरहे दाहिणमाहणकुंडपुर-सन्निवेसंसि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर ने इस अवसर्पिणी काल के सुषम – सुषम नामक आरक, सुषम आरक और सुषम – दुषम आरक के व्यतीत होने पर तथा दुषम – सुषम नामक आरक के अधिकांश व्यतीत हो जाने पर और जब केवल ७५ वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए थे, तब ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास, आठवे पक्ष, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि को; उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 511 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणे भगवं महावीरे कासवगोत्ते। तस्स णं इमे नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा – १. अम्मापिउसंतिए ‘वद्धमाणे’ २. सह-सम्मुइए ‘समणे’ ३. ‘भीमं भयभेरवं उरालं अचेलयं परिसहं सहइ’ त्ति कट्टु देवेहिं से नामं कयं ‘समणे भगवं महावीरे’।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पिआ कासवगोत्तेणं। तस्स णं तिण्णि नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा–१. सिद्धत्थे ति वा २. सेज्जंसे ति वा ३. जसंसे ति वा।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिट्ठ-सगोत्ता। तीसेणं तिण्णि नामधेज्जा एवमाहिज्जंति, तं जहा–१. तिसला ति वा २. विदेहदिण्णा ति वा ३. पियकारिणी ति वा।
समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पित्तियए ‘सुपासे’ कासवगोत्तेणं।
समणस्स Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर के पिता काश्यप गोत्र के थे। उनके तीन नाम कहे जाते हैं, सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी। श्रमण भगवान महावीर की माता वाशिष्ठ गोत्रीया थीं। उनके तीन नाम कहे जाते हैं – त्रिशला, विदेहदत्ता और प्रियकारिणी। चाचा ‘सुपार्श्व’ थे, जो काश्यप गौत्र के थे। ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्द्धन थे, जो काश्यप | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 512 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहूइं वासाइं समणोवासगपरियागं पालइत्ता, छण्हं जीवनिकायाणं संरक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरहित्ता पडिक्कमित्ता, अहारिहं उत्तरगुणं पायच्छित्तं पडिवज्जित्ता, कुससंथारं दुरुहित्ता भत्तं पच्चक्खाइंति, भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीर-संलेहणाए सोसियसरीरा कालमासे कालं किच्चा तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णा। तओ णं आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं चुए चइत्ता महाविदेहवासे चरिमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिणिव्वाइस्संति Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर के माता पिता पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी थे, दोनों श्रावक – धर्म का पालन करने वाले थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक – धर्म का पालन करके षड्जीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा एवं पाप दोषों का प्रतिक्रमण करके, मूल और उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 513 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे नाते नायपुत्ते नायकुल-विणिव्वत्ते विदेहे विदेहदिण्णे विदेहजच्चे विदेहसुमाले तीसं वासाइं विदेहत्ति कट्टु अगारमज्झे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइण्णे चिच्चा हिरण्णं, चिच्चा सुवण्णं, चिच्चा बलं, चिच्चा वाहणं, चिच्चा धण-धण्ण-कणय-रयण-संत-सार-सावदेज्जं, विच्छड्डेत्ता विगोवित्ता विस्साणित्ता, दायारे सु णं ‘दायं पज्जभाएत्ता’, संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमेमासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं अभिणिक्खमनाभिप्पाए यावि Translated Sutra: उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर, जो कि ज्ञातपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चूके थे, ज्ञात कुल से विनिवृत्त थे, देहासक्ति रहित थे, विदेहजनों द्वारा अर्चनीय थे, विदेहदत्ता के पुत्र थे, सुकुमार थे। भगवान महावीर तीस वर्ष तक विदेह रूप में गृह में निवास करके माता – पिता के आयुष्य पूर्ण करके देवलोक को प्राप्त हो | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 517 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वेसमणकुंडलधरा, देवा लोगंतिया महिड्ढीया ।
बोहिंति य तित्थयरं, पण्णरससु कम्म-भूमिसु ॥ Translated Sutra: कुण्डलधारी वैश्रमणदेव और महान् ऋद्धिसम्पन्न लोकान्तिक देव पंद्रह कर्मभूमियों में (होने वाले) तीर्थंकर भगवान को प्रतिबोधित करते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 519 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] एए देवणिकाया, भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं ।
सव्वजगजीवहियं, अरहं तित्थं पव्वत्तेहि ॥ Translated Sutra: ये सब देव निकाय (आकर) भगवान वीर – जिनेश्वर को बोधित (विज्ञप्त) करते हैं – हे अर्हन् देव ! सर्व जगत के लिए हितकर धर्म – तीर्थ का प्रवर्तन करें। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 520 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिणिक्खमनाभिप्पायं जानेत्ता भवनवइ-वाणमंतर-जोइसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि-सएहिं रूवेहिं, सएहिं-सएहिं नेवत्थेहिं, सएहिं-सएहिं चिंधेहिं, सव्विड्ढीए सव्वजुतीए सव्वबल-समुदएणं सयाइं-सयाइं जाण विमाणाइं दुरुहंति, सयाइं-सयाइं जाणविमाणाइं दुरुहित्ता अहाबादराइं पोग्गलाइं परिसाडेति, अहा-बादराइं पोग्गलाइं परिसाडेत्ता अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइंति, अहासुहुमाइं पोग्गलाइं परियाइत्ता उड्ढं उप्पयंति, उड्ढं उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहेणं ओवयमाणा-ओवयमाणा तिरिएणं असंखेज्जाइं दीवसमुद्दाइं Translated Sutra: तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के अभिनिष्क्रमण के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियाँ अपने – अपने रूप से, अपने – अपने वस्त्रों में और अपने – अपने चिह्नों से युक्त होकर तथा अपनी – अपनी समस्त ऋद्धि, द्युति और समस्त बल – समुदाय सहित अपने – अपने यान – विमानों पर चढ़ते हैं फिर सब | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 521 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सीया उवणीया, जिणवरस्स जरमरणविप्पमुक्कस्स ।
ओसत्तमल्लदामा, जलथलयदिव्वकुसुमेहिं ॥ Translated Sutra: जरा – मरण से विमुक्त जिनवर महावीर के लिए शिबिका लाई गई, जो जल और स्थल पर उत्पन्न होने वाले दिव्यपुष्पों और देव निर्मित पुष्पमालाओं से युक्त थी। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 526 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुव्विं उक्खित्ता, माणुसेहिं साहट्ठरोमपुलएहिं ।
पच्छा वहंति देवा, सुरअसुरगरुलणागिंदा ॥ Translated Sutra: पहले उन मनुष्यों ने उल्लासवश वह शिबिका उठाई, जिनके रोमकूप हर्ष से विकसित हो रहे थे। तत्पश्चात् सूर, असुर, गरुड़ और नागेन्द्र आदि देव उसे उठाकर ले चले। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 527 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पुरओ सुरा वहंती, असुरा पुण दाहिणंमि पासंमि ।
अवरे वहंति गरुला, णागा पुण उत्तरे पासे ॥ Translated Sutra: उस शिबिका को पूर्वदिशा की ओर से सुर (वैमानिक देव) उठाकर ले चलते हैं, जबकि असुर दक्षिण दिशा की ओर से, गरुड़ देव पश्चिम दिशा की ओर से और नागकुमार देव उत्तर दिशा की ओर से उठाकर ले चलते हैं। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 528 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] वनसंडं व कुसुमियं, पउमसरो वा जहा सरयकाले ।
सोहइ कुसुमभरेणं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ॥ Translated Sutra: उस समय देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे खिले हुए पुष्पों से वनखण्ड, या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्म सरोवर। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 529 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] सिद्धत्थवणं व जहा, कणियारवणं व चंपगवणं वा ।
सोहइ कुसुमभरेणं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ॥ Translated Sutra: उस समय देवों के आगमन से गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरसों, कचनार या कनेर या चम्पकवन फूलों के झुण्ड से सुहावना प्रतीत होता है। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 531 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] ततविततं घणझुसिरं, आउज्जं चउविहं बहुविहीयं ।
वायंति तत्थ देवा, बहूहिं आणट्टगसएहिं ॥ Translated Sutra: वहीं पर देवगण बहुत से – शताधिक नृत्यों और नाट्यों के साथ अनेक तरह के तत, वितत, घन और शुषिर, यों चार प्रकार के बाजे बजा रहे थे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 532 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे–मग्गसिरबहुले, तस्स णं मग्गसिर बहुलस्स दसमीपक्खेणं, सुव्वएणं दिवसेणं, विजएणं मुहुत्तेणं, ‘हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं’ जोगोवगएणं, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, छट्ठेण भत्तेणं अपाणएणं, एगसाडगमायाए, चंदप्पहाए सिवियाए सहस्सवाहिणीए, सदेवमणुयासुराए परिसाए समण्णिज्जमाणे-समण्णिज्जमाणे उत्तरखत्तिय कुंडपुर-संणिवेसस्स मज्झंमज्झेणं णिगच्छइ, णिगच्छित्ता जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ईसिंरयणिप्पमाणं अच्छुप्पेणं भूमिभागेणं सणियं-सणियं चंदप्पभं सिवियं सहस्सवाहिणिं ठवेइ, Translated Sutra: उस काल और उस समय में, जबकि हेमन्त ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष मास का कृष्णपक्ष की दशमी तिथि के सुव्रत के विजय मुहूर्त्त में, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, पूर्व गामिनी छाया होने पर, द्वीतिय पौरुषी प्रहर के बीतने पर, निर्जल षष्ठभक्त – प्रत्याख्यान के साथ एकमात्र | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 533 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] दिव्वो मणुस्सघोसो, तुरियणिणाओ य सक्कवयणेण ।
खिप्पामेव णिलुक्को, जाहे पडिवज्जइ चरित्तं ॥ Translated Sutra: जिस समय भगवान चारित्र ग्रहण कर रहे थे, उस समय शक्रेन्द्र के आदेश से शीघ्र ही देवों के दिव्य स्वर, वाद्य के निनाद और मनुष्यों के शब्द स्थगित कर दिये। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 534 | Gatha | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [गाथा] पडिवज्जित्तु चरित्तं, अहोणिसिं सव्वपाणभूतहितं ।
साहट्ठलोमपुलया, पयया देवा निसामिंति ॥ Translated Sutra: भगवान चारित्र अंगीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गए। सभी देवों ने यह सूना तो हर्ष से पुलकित हो उठे। | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 535 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरित्तं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नामं नाणे समुप्पन्ने–अड्ढाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सण्णीणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमणसाणं मणोगयाइं भावाइं जाणेइ।
तओ णं समणे भगवं महावीरे पव्वइते समाणे मित्त-नाति-सयण-संबंधिवग्गं पडिविसज्जेति, पडिविसज्जेत्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ– ‘बारसवासाइं वोसट्ठकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तं जहा–दिव्वा वा, माणुसा वा, तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे ‘अनाइले अव्वहिते अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते’ सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि Translated Sutra: श्रमण भगवान महावीर को क्षायोपशमिक सामायिकचारित्र ग्रहण करते ही मनःपर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ; वे अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञीपंचेन्द्रिय, व्यक्त मन वाले जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। उधर श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होते ही अपने मित्र, ज्ञाति, स्वजन – सम्बन्धी वर्ग | |||||||||
Acharang | आचारांग सूत्र | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-३ अध्ययन-१५ भावना |
Hindi | 539 | Sutra | Ang-01 | View Detail | |
Mool Sutra: [सूत्र] अहावरं चउत्थं भंते! महव्वयं–पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं–से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा, नेवन्नेहिं मेहुणं गच्छावेज्जा, अन्नंपि मेहुणं गच्छंतं न समणुज्जाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं–मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।
तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति।
तत्थिमा पढमा भावणा–नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया। केवली बूया–निग्गंथे णं अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहमाणे, संतिभेदा संतिविभंगा संतिकेवली-पण्णत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा। नो निग्गंथे अभिक्खणं-अभिक्खणं इत्थीणं Translated Sutra: इसके पश्चात् भगवन् ! मैं चतुर्थ महाव्रत स्वीकार करता हूँ, समस्त प्रकार के मैथुन – विषय सेवन का प्रत्या – ख्यान करता हूँ। देव – सम्बन्धी, मनुष्य – सम्बन्धी और तिर्यंच – सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से मैथुन – सेवन कराऊंगा और न ही मैथुनसेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। शेष समस्त वर्णन अदत्तादान | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-१ शस्त्र परिज्ञा |
उद्देशक-६ त्रसकाय | Gujarati | 54 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे।
अप्पेगे पायमब्भे, अप्पेगे पायमच्छे।
अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।
से बेमि–अप्पेगे अच्चाए वहंति, अप्पेगे अजिणाए वहंति, अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, अप्पेगे हिययाए वहंति, अप्पेगे पित्ताए वहंति, अप्पेगे वसाए वहंति, अप्पेगे पिच्छाए वहंति, अप्पेगे पुच्छाए वहंति, अप्पेगे बालाए वहंति, अप्पेगे सिंगाए वहंति, अप्पेगे विसाणाए वहंति, अप्पेगे दंताए वहंति, अप्पेगे दाढाए वहंति, अप्पेगे नहाए वहंति, अप्पेगे ण्हारुणीए वहंति, अप्पेगे अट्ठीए वहंति, अप्पेगे अट्ठिमिंजाए वहंति, अप्पेगे अट्ठाए वहंति, अप्पेगे अणुट्ठाए Translated Sutra: હું કહું છું કે, કેટલાક લોકો દેવ – દેવીની પૂજાને માટે ત્રસકાય જીવોને હણે છે, કોઈ ચર્મને માટે, કોઈ માંસને માટે, કોઈ લોહી માટે, એ પ્રમાણે હૃદય, પિત્ત, ચરબી, પિંછા, પુચ્છ, વાળ, શીંગડું, વિષાણ, દાંત, દાઢા, નખ, સ્નાયુ, અસ્થિ, અસ્થિમિંજ માટે ત્રસકાયની હિંસા કરે છે. કોઈ સકારણ કે અકારણ હિંસા કરે છે. કોઈ મને માર્યો કે મને મારે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-१ स्वजन | Gujarati | 67 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जीविए इह जे पमत्ता।
से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता।
अकडं करिस्सामित्ति मन्नमाणे।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ‘ते वा णं’ एगया नियगा तं पुव्विं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा।
नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा। तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा। Translated Sutra: જેને જીવનની ક્ષણભંગુરતાનું જ્ઞાન નથી તે અસંયમી જીવન પ્રતિ પ્રમત્ત બની છ કાયના જીવોનું હનન, છેદન, ભેદન કરે છે. લૂંટે છે, ધાડ પાડે છે, ઉપદ્રવ કરે છે , ત્રાસ આપે છે. આવું કરતો તે એમ માને છે કે, કોઈએ ન કર્યું હોય તેવું કામ કરીશ. જે સ્વજનાદિ સાથે વસે છે તેઓએ પૂર્વે મારું પોષણ કરેલ તેમ વિચારી પછી તું તારા સ્વજનોને પોષે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-२ अद्रढता | Gujarati | 76 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] विणइत्तु लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति-पासति।
पडिलेहाए नावकंखति।
एस अनगारेत्ति पवुच्चति।
अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकालसमुट्ठाई, संजोगट्ठी अट्ठालोभी, आलुंपे सहसक्कारे, विनिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो-पुणो
से आय-बले, से नाइ-बले, से मित्त-बले, से पेच्च-बले, से देव-बले, से राय-बले, से चोर-बले, से अतिहि-बले, से किवण-बले, से समण-बले।
इच्चेतेहिं विरूवरूवेहिं कज्जेहिं दंड-समायाणं।
सपेहाए भया कज्जति।
पाव-मोक्खोत्ति मन्नमाणे।
अदुवा आसंसाए। Translated Sutra: જે લોભથી નિવૃત્ત થઈ પ્રવ્રજ્યા લે છે, તે કર્મરહિત થઈ સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી બને છે. જે લોભના વિપાકોનો વિચાર કરી, આકાંક્ષા – રહિત બને છે, તે જ સાચા અણગાર કહેવાય છે. અજ્ઞાની જીવ રાતદિન દુઃખ પામતો, કાળ – અકાળની પરવા ન કરી સ્વજન તથા ધનાદિમાં આસક્ત બની ભોગવાંછુક, ધનલોભી, લૂંટારો, સહસાકાર્ય કરનાર, વ્યાકુળ ચિત્ત થઈ પુનઃ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-५ लोकनिश्रा | Gujarati | 88 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जमिणं विरूवरूवेहिं ‘सत्थेहिं लोगस्स कम्म-समारंभा’ कज्जंति, तं जहा–अप्पनो से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं नातीणं धातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए, पुढो पहेणाए, सामासाए, पायरासाए।
सन्निहि-सन्निचओ कज्जइ इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए। Translated Sutra: ગૃહસ્થો વિવિધ શસ્ત્રો વડે પોતા કે અન્ય માટે લોકમાં કર્મ સમારંભ – પચન – પાચન કરે છે. તે આ પ્રમાણે – તે પોતાના પુત્રો, પુત્રી, પુત્રવધૂ, કુટુંબી, ધાઈ, રાજા, દાસ, દાસી, કર્મચારી, કર્મચારીણી, મહેમાન આદિને માટે, વિવિધ લોકોને દેવા માટે, સાંજ – સવારના ભોજન માટે, આ પ્રકારે આરંભ અર્થાત્હિંસા કરી આહારાદિનો સંનિધિ અને સંનિચય | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-२ लोकविजय |
उद्देशक-६ अममत्त्व | Gujarati | 106 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अवि य हणे अनादियमाणे। एत्थंपि जाण, सेयंति नत्थि।
के यं पुरिसे? कं च नए?
एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए।
उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वतो सव्वपरिण्णचारी।
न लिप्पई छणपएण वीरे।
से मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधप्पमोक्खमन्नेसि।
कुसले पुण नोबद्धे, नोमुक्के। Translated Sutra: ધર્મોપદેશ સમયે ક્યારેક કોઈ શ્રોતા પોતાનાં સિદ્ધાંત કે મતનો અનાદર થવાથી ક્રોધિત થઇ ઉપદેશકને મારવા લાગે, તો ધર્મકથા કરનાર એમ જાણે કે અહીં ધર્મકથા કરવી કલ્યાણકારી નથી. ઉપદેશકે પહેલાં એ જાણવું જોઈએ કે – શ્રોતા કોણ છે ? તે ક્યા દેવને કે ક્યા સિદ્ધાંતને માને છે? ઉર્ધ્વદિશામાં રહેલ – જ્યોતિષ્ક આદિ, અધોદિશામાં રહેલ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-२ दुःखानुभव | Gujarati | 122 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आसेवित्ता एतमट्ठं, इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवए।
निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं नच्चा। अनन्नं चर माहणे!
से न छणे न छनावए, छणंतं णाणुजाणइ।
निव्विंद नंदिं अरते पयासु।
अणोमदंसी निसन्ने पावेहिं कम्मेहिं। Translated Sutra: વધ – પરિતાપ આદિનું આસેવન કરી, છેલ્લે તે સર્વેનો ત્યાગ કરી કેટલાયે પ્રાણી સંયમમાર્ગમાં ઉદ્યમવંત થયા છે. તેથી જ્ઞાની પુરુષો કામભોગને અસાર સમજી છોડ્યા પછી ફરી મૃષાવાદ આદિ અસંયમનું સેવન ન કરે. હે જ્ઞાની મુનિ! વિષયોને સાર રહિત જાણો, દેવોના પણ ઉપપાત – ચ્યવન અર્થાત્ જન્મ અને મરણ નિશ્ચિત છે તે જાણીને હે માહણ ! તું અનન્ય | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-३ शीतोष्णीय |
उद्देशक-४ कषाय वमन | Gujarati | 138 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी।
जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी।
जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी।
जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी।
जे जम्म-दंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी।
जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं च।
एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स।
आयाणं णिसिद्धा सगडब्भि।
किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ? नत्थि। Translated Sutra: જે ક્રોધના અનર્થકારી સ્વરૂપને જાણે છે અને તેનો પરિત્યાગ કરે છે તે માનદર્શી છે અર્થાત્ માનને પણ જાણે છે અને ત્યાગ કરે છે, એ જ પ્રમાણે જે માનદર્શી છે તે માયાને જાણીને તજે છે, જે માયાદર્શી છે તે લોભદર્શી છે, જે લોભદર્શી છે તે રાગદર્શી છે, જે રાગદર્શી છે તે દ્વેષદર્શી છે, જે દ્વેષદર્શી છે તે મોહદર્શી છે, જે મોહદર્શી | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-४ सम्यक्त्व |
उद्देशक-१ सम्यक्वाद | Gujarati | 139 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से बेमि–जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति–सव्वे पाणा सव्वे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिघेतव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा।
एस धम्मे सुद्धे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए।
तं जहा–उट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवट्ठिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा। संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा।
तच्चं चेयं तहा चेयं, अस्सिं चेयं पवुच्चइ। Translated Sutra: હે જમ્બૂ! હું તીર્થંકરના વચનથી કહું છું – ભૂતકાળમાં થયેલા, વર્તમાનમાં છે તે અને ભાવિમાં થશે તે બધા તીર્થંકર ભગવંતો આ પ્રમાણે કહે છે, આવું બોલે છે, આવું પ્રજ્ઞાપન કરે છે, પ્રરૂપણા કરે છે કે સર્વે પ્રાણી, સર્વે ભૂતો, સર્વે જીવો અને સર્વે સત્ત્વોને મારવા નહીં, તેના પર હૂકમ ન કરવો, નોકરની જેમકબજામાં ન રાખવા, ન સંતાપ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-२ विरत मुनि | Gujarati | 162 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोगंसि परिग्गहावंती–से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, एतेसु चेव परिग्गहावंती।
एतदेवेगेसि महब्भयं भवति, लोगवित्तं च णं उवेहाए।
एए संगे अविजाणतो। Translated Sutra: આ જગતમાં જેટલા પણ પરિગ્રહવાળા છે, તે પરિગ્રહ થોડો હોય કે વધુ, સૂક્ષ્મ હોય કે સ્થૂલ, સચિત્ત હોય કે અચિત્ત તે પરિગ્રહ ધારી ગૃહસ્થ સમાન જ છે. આ પરિગ્રહ નરકાદિ મહાભયનું કારણ છે. આહારાદિ લોકસંજ્ઞા પણ ભયરૂપ છે, તેથી તેનો ત્યાગ કરવો જોઈએ. દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ પરિગ્રહ આદિને ધારણ ન કરનાર સંયમીનું ચારિત્ર પ્રશસ્ત છે. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Gujarati | 164 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] आवंती केआवंती लोयंसि अपरिग्गहावंती, एएसु चेव अपरिग्गहावंती।
सोच्चा वई मेहावी, पंडियाणं णिसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते ॥
जहेत्थ मए संधी झोसिए, एवमण्णत्थ संधी दुज्झोसिए भवति, तम्हा बेमि–नो निहेज्ज वीरियं। Translated Sutra: આ લોકમાં જે કોઈ અપરિગ્રહી છે, તે આ અલ્પાદિ દ્રવ્યના ત્યાગથી અપરિગ્રહી બને છે. મેધાવી સાધક) જિનવચન સાંભળીને તથા પંડિતોના વચન વિચારીને અપરિગ્રહી બને. તીર્થંકરોએ સમતામાં ધર્મ કહ્યો છે. જે રીતે મેં જ્ઞાન – દર્શન – ચારિત્ર એ ત્રણેની સંધીરૂપ સાધના કરી કર્મોનો ક્ષય કહ્યો છે, તે રીતે બીજા માર્ગમાં કર્મો ક્ષીણ કરવા | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-३ अपरिग्रह | Gujarati | 165 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] जे पुव्वुट्ठाई, नोपच्छा-निवाई। जे पुव्वुट्ठाई, पच्छा-निवाई। जे नोपुव्वुट्ठाई, नोपच्छा-निवाई।
सेवि तारिसए सिया, जे परिण्णाय लोगमणुस्सिओ। Translated Sutra: પ્રવ્રજ્યા લેનાર સાધકના ત્રણ પ્રકાર બતાવે છે – ) ૧. કેટલાક પહેલા ત્યાગ – માર્ગ અંગીકાર કરે, પછી અંત સુધી સંયમ પાળે છે. ૨. કેટલાક પહેલા ત્યાગ – માર્ગ અંગીકાર કરે છે, પછી પતિત થાય છે. ૩. કેટલાક પહેલા પણ ત્યાગ – માર્ગ અંગીકાર કરતા નથી, અને પછીથી પતિત પણ થતા નથી. જે સંસારના પદાર્થોને જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી છોડે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-५ लोकसार |
उद्देशक-५ ह्रद उपमा | Gujarati | 177 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘हंतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘अज्जावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परितावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परिघेतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘उद्दवेयव्वं’ ति मन्नसि।
अंजू चेय-पडिबुद्ध-जीवी, तम्हा ण हंता न विघायए।
अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं ‘हंतव्वं’ ति नाभिपत्थए। Translated Sutra: તું તે જ છે જેને તું હનન યોગ્ય માને છે, તું તે જ છે જેને તું આજ્ઞામાં રાખવા યોગ્ય માને છે, તું તે જ છે જેને તું પરિતાપ દેવા યોગ્ય માને છે, તું તે જ છે જેને તું ગ્રહણ કરવા યોગ્ય માને છે, તું તે જ છે જેને તું મારવા યોગ્ય માને છે. પણ જ્ઞાની પુરૂષ ઋજુ હોય છે. તેથી તે ઘાત કરતા નથી, કરાવતા નથી. કરેલા કર્માનુસાર પોતાને તેનું | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Gujarati | 190 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मरणं तेसिं संपेहाए, उववायं चयणं च नच्चा ।
परिपागं च संपेहाए, तं सुणेह जहा तहा ॥
संति पाणा अंधा तमंसि वियाहिया।
तामेव सइं असइं अतिअच्च उच्चावयफासे पडिसंवेदेंति।
बुद्धेहिं एयं पवेदितं।
संति पाणा वासगा, रसगा, उदए उदयचरा, आगासगामिणो।
पाणा पाणे किलेसंति। पास लोए महब्भयं। Translated Sutra: આ ૧૬ રોગ કે તેવા અન્ય રોગ આદિથી પીડિત તે મનુષ્યોના મૃત્યુનું નિરિક્ષણ કરીને વિચાર કે – જેમને રોગ નથી તેવા દેવોને પણ જન્મ અને મરણ થાય છે. તેથીકર્મોના વિપાકને સારી રીતે વિચારી તેના ફળને કહું છું તે સાંભળો. એવા પણ પ્રાણી છે જે કર્મના વશ થઈ અંધપણું પામે છે, ઘોર અંધકારમય સ્થાનોમાં રહે છે, તે જીવો ત્યાં જ વારંવાર જન્મ | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-१ स्वजन विधूनन | Gujarati | 193 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] तं परक्कमंतं परिदेवमाणा, ‘मा णे चयाहि’ इति ते वदंति। छंदोवणीया अज्झोववन्ना, अक्कंदकारी जणगा रुवंति।
अतारिसे मुनी, नो ओहंतरए, जणगा जेण विप्पजढा।
सरणं तत्थ णोसमेति। किह नाम से तत्थ रमति?
एयं नाणं सया समणुवासिज्जासि। Translated Sutra: તેઓ સંયમ અંગીકાર કરેત્યારે તેને માતા – પિતાદિ વિલાપ કરતા કહે છે – અમે તારી ઇચ્છાનુસાર ચાલનારા છીએ, તને આટલો પ્રેમ કરનારા છીએ. તું અમને ન છોડ. એ રીતે આક્રંદન કરતા કહે છે – જે માતા – પિતાને છોડી દે તે ન મુનિ થઈ શકે કે ન સંસાર તરી શકે. આવા વચનો સાંભળીને તેનો જે સ્વીકાર કરતા નથી, તે કઈ રીતે સંસારમાં રહે ? આ જ્ઞાન સદા ધ્યાનમાં | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-६ द्युत |
उद्देशक-२ कर्मविधूनन | Gujarati | 196 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] ‘अहेगे धम्म मादाय’ ‘आयाणप्पभिइं सुपणिहिए’ चरे।
अपलीयमाणे दढे।
सव्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुनी।
अइअच्च सव्वतो संगं ‘ण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि।’
जयमाणे एत्थ विरते अनगारे सव्वओ मुंडे रीयंते।
जे अचेले परिवुसिए संचिक्खति ओमोयरियाए।
से अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा।
पलियं पगंथे अदुवा पगंथे।
अतहेहिं सद्द-फासेहिं, इति संखाए।
एगतरे अन्नयरे अभिण्णाय, तितिक्खमाणे परिव्वए।
जे य हिरी, जे य अहिरीमणा। Translated Sutra: કેટલાક લોકો ધર્મ પ્રાપ્ત કરીને ધર્મોપગરણથી યુક્ત થઈને સર્વજ્ઞ કથિત ધર્મ આચરે છે. લીધેલ પ્રતિજ્ઞામાં દૃઢ રહે છે. સર્વ આસક્તિને દુઃખમય જાણી તેનાથી દૂર રહે તે જ મહામુનિ છે. તે સર્વે પ્રપંચોને છોડી ‘‘મારું કોઈ નથી – હું એકલો છું’’ એમ વિચારી પાપક્રિયાથી નિવૃત્ત થઈ, યતના કરતો અણગાર દ્રવ્ય અને ભાવથી મુંડિત થઈ વિચરે, | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-२ अकल्पनीय विमोक्ष | Gujarati | 217 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] भिक्खुं च खलु पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति– ‘से हंता! हणह, खणह, छिंदह, दहह, पचह, आलुंपह, विलुंपह, सहसाकारेह, विप्परामुसह’ – ते फासे ‘धीरो पुट्ठो’ अहियासए।
अदुवा आयार-गोयरमाइक्खे, तक्किया ण मणेलिसं। ‘अनुपुव्वेण सम्मं पडिलेहाए आयगुत्ते।
अदुवा गुत्ती गोयरस्स’। बुद्धेहिं एयं पवेदितं– Translated Sutra: કોઈ ગૃહસ્થ સાધુને પૂછીને કે પૂછ્યા વિના ઘણું દ્રવ્ય ખર્ચી આહારાદિ બનાવે. જ્યારે મુનિ એ ન લે ત્યારે) કદાચ તે ગૃહસ્થ ક્રોધાવેશથી સાધુને મારે અથવા કહે કે, આને મારો, પીટો, હાથ – પગ છેદો, બાળો, પકાવો, લૂંટી લો, બધું છીનવી લો, પ્રાણરહિત કરી દો. અનેક પ્રકારે પીડા પહોંચાડો. આવા કષ્ટોને તે ધીર સાધુ સહન કરે અથવા તેને આચારગોચર | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-८ विमोक्ष |
उद्देशक-३ अंग चेष्टाभाषित | Gujarati | 220 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] मज्झिमेणं वयसा एगे, संबुज्झमाणा समुट्ठिता।
‘सोच्चा वई मेहावी’, पंडियाणं निसामिया। समियाए धम्मे, आरिएहिं पवेदिते।
ते अणवकंखमाणा अणतिवाएमाणा अपरिग्गहमाणा नो ‘परिग्गहावंतो सव्वावंतो’ च णं लोगंसि।
णिहाय दंडं पाणेहिं, पावं कम्मं अकुव्वमाणे, एस महं अगंथे वियाहिए।
ओए जुतिमस्स खेयण्णे उववायं चवणं च नच्चा। Translated Sutra: કોઈ મધ્યમ વયમાં પ્રતિબોધ પામી ચારિત્રધર્મ માટે ઉદ્યત બને છે. મેધાવી સાધક પંડિતોના વચન સાંભળી તથા સમજીને સમભાવ ધરે. તીર્થંકરોએ સમતામાં ધર્મ કહ્યો છે. સમભાવી સાધુ કામભોગોની ઇચ્છાથી નિવૃત્ત થઈ પ્રાણીની હિંસા ન કરે, પરિગ્રહ ન રાખે, તેથી સમગ્ર લોકમાં અપરિગ્રહી કહેવાય છે. જે પ્રાણીની હિંસાનો ત્યાગ કરે છે તે કારણે | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Gujarati | 266 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] नो चेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तंसि हेमंते ।
से पारए आवकहाए, एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥ Translated Sutra: સર્વ પ્રકારે વસ્ત્ર – અલંકાર આદિ ઉપધિને છોડીને નીકળેલા ભગવંતના ખભે ઇન્દ્રે દેવદૂષ્ય – વસ્ત્ર મૂક્યું, પણ ભગવંતે એવું ન વિચાર્યું કે, હું હેમંતઋતુમાં આ વસ્ત્રથી શરીરને ઢાંકીશ. કેમ કે ભગવંત જીવનપર્યંત પરીષહોને સહન કરનારા હતા. તેમનું વસ્ત્ર ધારણ કરવું તે તેમની અનુધર્મિતા અર્થાત્ પૂર્વવર્તી તીર્થંકરો દ્વારા | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Gujarati | 279 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] भगवं च ‘एवं मन्नेसिं’, सोवहिए हु लुप्पती बाले ।
कम्मं च सव्वसो नच्चा, तं पडियाइक्खे पावगं भगवं ॥ Translated Sutra: ભગવંતે વિચારપૂર્વક જાણ્યું કે – દ્રવ્ય અને ભાવ ઉપધિ વડે જીવો કર્મોથી લેપાઈને દુઃખ પામે છે. તેથી કર્મના રહસ્યને સારી રીતે જાણીને કર્મના કારણરૂપ પાપનો ત્યાગ કર્યો હતો. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-१ चर्या | Gujarati | 286 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] सिसिरंसि अद्धपडिवन्ने, तं वोसज्ज वत्थमणगारे ।
पसारित्तु बाहुं परक्कमे, नो अवलंबियाण कंधंसि ॥ Translated Sutra: દેવદૂષ્ય – વસ્ત્ર છોડ્યા પછી શિશિર ઋતુમાં રસ્તે ચાલતા ભગવંત બંને બાહુ ફેલાવીને ચાલતા હતા. સહિત થી વ્યાકુળ થઇ હાથ સંકોચીને અથવા ખભા પર રાખી ચાલતા ન હતા. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-१ अध्ययन-९ उपधान श्रुत |
उद्देशक-४ आतंकित | Gujarati | 331 | Gatha | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [गाथा] अवि ज्झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए ज्झाणं ।
उड्ढमहे तिरियं च, पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥ Translated Sutra: ભગવંત મહાવીર ઉકડુ આદિ આસનોમાં સ્થિત અને સ્થિર ચિત્ત થઈને ધ્યાન કરતા હતા. ઉર્ધ્વ – અધો – તિર્છાલોકમાં સ્થિત દ્રવ્યાદિનું ધ્યાન કરતા સમાધિમાં સ્થિત રહેતા. | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-१ | Gujarati | 343 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविसितुकामे, सेज्जाइं पुण कुलाइं जाणेज्जा–इमेसु खलु कुलेसु नितिए पिंडे दिज्जइ, नितिए अग्ग-पिंडे दिज्जइ, नितिए भाए दिज्जइ, नितिए अवड्ढभाए दिज्जइ–तहप्पगाराइं कुलाइं नितियाइं नितिउमाणाइं, नो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज वा निक्खमेज्ज वा।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं, जं सव्वट्ठेहिं समिए सहिए सया जए। Translated Sutra: જે સાધુ કે સાધ્વી ગૃહસ્થના ઘેર આહારને માટે પ્રવેશ કરવાની ઇચ્છાવાળા હોય તે એમ જાણે કે – આ કુલો ઘરો)માં નિત્ય પીંડ અપાય છે, અગ્રપીંડ દેવાય છે, નિયત ભાગ દેવાય છે, અપાર્ધ ભાગ દેવાય છે, તે પ્રકારના કુળોમાં નિત્ય દાન અપાય છે – ઘણા ભિક્ષુઓ આવે છે; એવા કુળોમાં આહારપાણીને માટે પ્રવેશ કે નિર્ગમન ન કરે. આ ખરેખર સાધુ – સાધ્વીઓનો | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-३ | Gujarati | 351 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण जाणज्जा–गामं वा, नगरं वा, खेडं वा, कव्वडं वा, मडंबं वा, पट्टणं वा, दोणमुहं वा, आगरं वा, निगमं वा, आसमं वा, सन्निवेसं वा, रायहाणिं वा। इमंसि खलु गामंसि वा, नगरंसि वा, खेडंसि वा, कव्वडंसि वा, मडंबंसि वा, पट्टणसि वा, दोणमुहंसि वा, आगरंसि वा, निगमंसि वा, आसमंसि वा, सन्निवेसंसि वा, रायहाणिंसि वा, संखडी सिया। तं पि य गामं वा जाव रायहाणिं वा, ‘संखडि-पडियाए’ नो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
केवली बूया आयाणमेयं–आइण्णावमाणं संखडिं अणुपविस्समाणस्स–पाएण वा पाए अक्कंतपुव्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवइ, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण वा सीसे Translated Sutra: તે સાધુ કે સાધ્વી એમ જાણે કે આ ગામ યાવત્ રાજધાનીમાં સંખડી – જમણવાર થશે, તો તે ગામ યાવત્ રાજધાનીમાં સંખડીમાં સંખડી લેવાનો વિચાર પણ ન કરે. કેવલી ભગવંતે કહ્યું છે કે, એમ કરવાથી કર્મબંધન થાય. તે જમણવારમાં ઘણી ભીડ હશે કે થોડા માટે ભોજન બનાવવા પર ઘણા લોકો પહોંચી જશે તો ત્યાં પગથી પગ ટકરાશે, હાથથી હાથ, મસ્તકથી મસ્તકનું | |||||||||
Acharang | આચારાંગ સૂત્ર | Ardha-Magadhi |
श्रुतस्कंध-२ चूलिका-१ अध्ययन-१ पिंडैषणा |
उद्देशक-६ | Gujarati | 367 | Sutra | Ang-01 | View Detail |
Mool Sutra: [सूत्र] अह तत्थ कंचि भूंजमाणं पेहाए, तं जहा–गाहावइं वा, गाहावइ-भारियं वा, गाहावइ-भगिनिं वा, गाहावइ-पुत्तं वा, गाहावइ-धूयं वा, सुण्हं वा, धाइं वा, दासं वा, दासिं वा, कम्मकरं वा, कम्मकरिं वा। से पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसो! त्ति वा, भइणि! त्ति वा दाहिसि मे एत्तो अन्नयरं भोयणजायं?
से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा, मत्तं वा, दव्विं वा, भायणं वा, सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा, पहोएज्ज वा। से पुव्वामेव आलोएज्जा–आउसो! त्ति वा, भइणि! त्ति वा, मा एयं तुमं हत्थं वा, मत्तं वा, दव्विं वा, भायणं वा, सीओदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेहि वा, पहोएहि वा, अभिकंखसि मे दाउं? एमेव दलयाहि।
से Translated Sutra: ભિક્ષા માટે ગયેલ સાધુ – સાધ્વી ત્યાં ગૃહસ્થ યાવત્ નોકરાણીને ભોજન કરતા જુએ, તો પહેલાં વિચારીને કહે કે, હે આયુષ્માન્ ભાઈ ! કે બહેન ! આમાંથી મને કંઈ ભોજન આપશો ? મુનિના એ પ્રમાણે કહેવાથી તે ગૃહસ્થ હાથ, થાળી, કડછી કે અન્ય પાત્ર સચિત્ત કે ઉષ્ણ જલથી એક કે અનેક વાર ધોવા લાગે તો સાધુએ પહેલાં જ તેને કહી દેવું જોઈએ કે, હે |